मानव मन अतिशय निर्मल सा हो,
कल-कल करती धारा जल सा हो,
व्यवहार जगत में शब्दों का नहीं श्रृंगार करें,
स्नेह-स्निग्ध भाव का कभी नहीं व्यापार करें।।
औरो के दुख को भी सहज समझ सके,
तत्पर होकर आँखों से अश्रु मिटाने को,
जो जीवन के आंगन में सही व्यवहार करें,
लाभ-हानि की गणना का नहीं विचार करें।।
मानव मन हो शीतल मंद हवा जैसा,
उन्मुक्त भाव से बढ़ते हुए पथिक बनकर,
औरो के तन-मन में जीवन का संचार करें,
जो छल के बातों का कभी नहीं आधार करें।।
मानव मन हो प्रज्वलित दीप का भाव लिए,
चलते हुए पथ को आलोकित करने को,
जो चलने के क्रम में भय का नहीं प्रचार करें,
जीवन के आंगन में खुद को नहीं लाचार करें।।
मानव मन भ्रमित न हो व्यर्थ की आशा में,
जो जीवन को समझे अति सहज बनकर,
निर्भय रहे सदा, सात्विकता का व्यवहार करें,
व्यवहार जगत में शब्दों का नहीं श्रृंगार करें।।
मन मानव का सार्थकता का उद्घोषक हो,
मानवता का करने वाला पथ पर पोषक हो,
जो निजता के भावों में खुद को नहीं लाचार करें,
औरो के भी तन-मन में जीवंत भाव संचार करें।।