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मन चंचल, खो मत पथ के हलचल में,
हितकर नहीं हैं रमणा किसी के दल-बल में,
हो तुम पथिक, आगे अपने भाव में चल,
क्षणिक लाभ में नहीं अपना स्वभाव बदल।।
तुम सुविधा को गाने को उत्सुक बिना तथ्य के,
उलझे हुए हो कब से हानि-लाभ की गणना में,
संभल जरा ऐसे में हो जाए तुमसे कहीं न छल,
पढ़ना हैं जो तुम को, नहीं जीवन का किताब बदल।।
तुम जो अनुयायी बनने को उत्सुक बस लाभ के,
इसमें पाने का-खो जाने का भय हैं छिपा हुआ,
ऐसे में तुम साधक बन रखो अपना स्वभाव अटल,
जीवन बहुधा भरमाती हैं, ऐसे में नहीं प्रभाव बदल।।
मन चंचल, तुम जो चाह रहे सुविधा के अनुरूप सही,
पथ पर चलने के क्रम में होता ऐसा संभव कभी नहीं,
तुम उलझ रहे कब से, हो न हो यह होगा मृग जल,
तुम जो किंचित उलझ पड़ो, ऐसे में बना दबाव बदल।।
तुम आकांक्षा के चढ़े अटारी अपनी ही बाते कहने को,
गुणा-भाग की उलझन में अटके बिना बात के बहने को,
जो मृग जल सी छाया है, उसे पा लेने को नहीं मचल,
तुम ऐसे में संभल जरा, वृथा नहीं पथ के छांव बदल।।
मन चंचल मत उलझ यहां, हलचल पथ पर छाया हैं,
भ्रम की गति हैं न्यारी, उसने दल-बल कई बनाया हैं,
तुम समझो जीवन को, निश्छल बन आगे बढ़ता चल,
अभी मंजिल तक जाना हैं, निज स्वभाव में चलता चल।।

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