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मन-उपवन में झंझावात के झोंके'
उठता अधिक बार, लिये बेडौल भार'
अंतर मन में हुए थे ग्रस्त'
बाहर दुनिया को दिखलाते रहे चमत्कार।।

तुम' चबेना, झूठ ही झूठ चबाओ'
हावभाव के बल, अपने गाल बजाओ'
बाहर का आवरण ओढ़े दुविधा से ग्रस्त'
स्व: मन के चंचलता का झेलते प्रहार।।

तुम लाभ की माला, ले फेर रहे हो हाथ'
क्षण को जो विक्षेप पड़े, तेज सुनाते बात'
गनना निज हित का लिये बन रहे हो मस्त'
मानकता जीवन नियमों की करने को कुंद धार।।

अलक-मलक की बातें, खुब बनाते हो'
मानव मन के वशीभूत स्व राग सुनाते हो'
जैसे लगता है, बने हो सुविधा के अभ्यस्त'
कटुता वाणी के लहरों को बहाते बार-बार।।

सूचिताएँ जीवन की, भूल रहे हो कब से'
समय चक्र पर चढ़ाई स्वार्थ पाक को जब से'
निजता के गुणगान में लग के हो रहे व्यस्त,
अनुचित-उचित की सारी बातों को बिसार।।

खाली ही तूणीर लिये, रण साधने को तत्पर'
पाने को लालायित जीवन से अमोघ वर'
स्वप्न के जाले बुन, छिपाते हो मन के कष्ट'
सुविधा के अनुरूप, करते पथ का व्यवहार।।

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