Photo by Dawid Zawiła on Unsplash

निराधार जो उपज गया था द्वंद्व,
फिर तो छाया था घना अंधकार,
सार्थकता से परे बन गया था भार,
भ्रमित मन ढ़ूंढ़ता रहा आधार,
आशाएँ भी, हो कही चमत्कार,
टूटे भ्रम का जाल, मिटे द्वंद्व भार।।
छल का बल, जो चलते था दाव,
होगा फिर परिणाम, गहरे होंगे घाव,
किन्तु क्षणिक जो दिखता था लाभ,
जीवंत भाव से उलटा बहने लगा बहाव,
नितांत ही मिट जाता यह अंधकार,
टूटे भ्रम का जाल, मिटे द्वंद्व भार।।
इच्छाओं के जटा जूट का विषम जाल,
हृदय को संतप्त करें ज्वाला सा बनकर,
फिर तो कहूं, अंतर में ठना हुआ हैं रार,
लाभ-हानि के गनना का बंद करूं व्यापार,
मन का जो मलिन विषम सा व्यवहार,
टूटे भ्रम का जाल, मिटे द्वंद्व भार।।
जकड़न जो स्वार्थ के सांकल से हैं मन,
अहं का साथ में पड़ा हुआ हैं पहरा,
हृदय कुंज में जो दाव पड़ा हैं गहरा,
इच्छाओं के बल नहीं जा रहा ठहरा,
किंचित जो संभलूँ, समझ सकूं सार,
टूटे भ्रम का जाल, मिटे द्वंद्व भार।।
निराधार ही अभिलाषा के सुलगाऊँ आग,
फिर तो मन में उठे कठिन से द्वेष-राग,
कल्पित सुविधाओं का जो दंश लगे,
अंतर्मन में बैठे-बैठे खुब मिलाऊँ ताग,
बचने को भी व्याकुल, जो हो रहा प्रहार,
टूटे भ्रम का जाल, मिटे द्वंद्व भार।।

.    .    .

Discus