ओ भ्रमित मन अब संयमित भी हो,
बन स्वच्छंद व्यर्थ का द्वेष बढ़ाओ ना,
मैं तेरी हर चाल से थक-हार चुका,
समझो, अब चिंता के राग जगाओ ना।।
तुम लाग-लपेट में उलझे कुछ पाने को,
द्विद्धा के तंतु पाल रहे विजयी हो जाने को,
तुम भावों के हो स्वच्छंद, इसे स्वीकार चुका,
अब तुम भी समझो, व्यर्थ के रार बढ़ाओ ना।।
तुम करते मनमानी, हैं ऐश्वर्य बढ़ाना तुमको,
ऐसा ही हैं सत्य, नहीं जीवन का मोल चुकाना तुमको,
मैं जो सहमा-सहमा हूं तुमसे कई बार हार चुका,
है् अंतर की मौन व्यथा, तुम अब समझ भी जाओ ना।।
हो तुम जो अति-गतिमान, पल में गति बढ़ाते,
सपनों के पंख लगाने को नीति सभी भुलाते,
करते जाते हो चमत्कार, इन बातों को तार चुका,
हो बलशाली तुम, मुझे ऐसे भयभीत बनाओ ना।।
ओ मन तेरा जगता सब-कुछ पा लेने की तृष्णा,
क्षणिक वलय बनाकर बन जाती हैं मृग-तृष्णा,
बहुतेरे लिप्सा जगे तेरे मैं इन सब से हार चुका,
अब तो संयम साधो मुझे ऐसे ही लोभ दिखाओ ना।।
ओ मन, तुम आकांक्षी बन सुख-सुविधा को गाते,
जीवन रस-आस्वाद बिना ऐसे ही बल खाते रह जाते,
तुम आवेश का वेग बनाते मैं खुद को बिगाड़ चुका,
अब तक यही हैं सत्य बात को समझो, रार बढ़ाओ ना।।