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पथ पर मुझको भी मिले स्निग्ध स्नेह।
स्निग्ध सहज प्रेम में भीगा सत्कार।
करने को मन उत्सुक होऊँ, आभार।
दुश्चिंताओं को पार करूं, पाऊँ जो आधार।
अंधकार' भ्रम टूटे, नव प्रकाश को पाऊँ।
पथ पर मिले स्नेह स्निग्ध मन पुनीत हो जाऊँ।।

आत्म वंचना से विरक्त बनूं, हूं ज्ञान का याचक।
मन मंथन कर रहा, समझ सकूंगा खुद को।
सीमाओं में बांध सकूं, उठते भाव विरुद्ध को।
रोक सकूं जो ढृढता से जीवन रण के युद्ध को।
निर्मल अब हो जाने को, मन शुद्धि करवाऊँ।
पथ पर मिले स्नेह स्निग्ध, मन पुनीत हो जाऊँ।।

जड़ता जो चेतन मन का' सजग हुआ हूं अब।
पाऊँ जीवन का ध्येय ज्ञान, मिटे आत्म वंचना।
प्रमाद कठिन जो घेरे था, बंधन टूट अब जाए।
कर लूं अब खुद को सजीव, जड़ता छूट अब जाए।
मानव मन हूं, नवीन होने को हवन यज्ञ करवाऊँ।
पथ पर मिले स्नेह स्निग्ध, मन पुनीत हो जाऊँ।।

कल तक जो लिपटा था, व्यर्थ लाभ के बल से।
आज चेतना जागृत हो सजग हुआ है छल से।
मधुर भले हो, अहित- अनर्थ है विष फल से।
अब टूटी है कई भ्रांतियां, सजग हुआ हलचल से।
मन मानव खुद में रमणे को, बोध तत्व को पाऊँ।
पथ पर मिले स्नेह स्निग्ध, मन पुनीत हो जाऊँ।।

मैं भी हूं पथिक' पथ पर मिले स्नेह स्निग्ध।
जीवन के सागर का मीठा सा अमृत रस।
मानव मन सहज हो सकूं समानता के बस।
और किलोल स्वर गान करुं, जीवन का यश।
अब ढृढता के भाव लिए, निर्धारित कर्म निभाऊँ।
पथ पर मिले स्निग्ध स्नेह, मन पुनीत हो जाऊँ।।

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