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पथिक हूं, अब मन के द्वेष भुलाऊँ,
गाऊँ जीवन के गीत मधुर लय,
जीवन पथ पर बढ़ूं होकर के निर्भय,
मिटाऊँ, मन में उपज पड़ा जो विस्मय,
अलय-निलय से अलग वेष धर लूं,
तुम भी आओ पास, जीवन गीत सुनाऊँ।।२
रार जो उपज पड़ा हृदय, प्रतिकार करूं,
मानक बिंदु पर समुचित व्यवहार करूं,
छलना रूपी भाव त्याग, जगाऊँ जीवन का राग,
अब जागृत हो, तीक्ष्ण ज्ञान का धार करूं,
अनमोल, पथिक का गुण हृदय में धर लूं,
मन निश्चल हो, जीवन धारा संग बहता जाऊँ।।
कर में अब कपट की माला नहीं मन फेरूँ,
जानूं खुद चैतन्य, अगल-बगल नहीं हेरूं,
भ्रमणाएँ जो आन पड़े दल-बल के संग,
संभलूं, पथिक मन वृथा द्वंद्व नहीं छेड़ूं,
हृदय कुंज हैं खाली, ज्ञान सुधा को भर लूं,
मन अब निश्छल होना है, सच्ची बात बताऊँ।।
अब जो मिटा तिमिर, निखर उठा उजास,
आभास करूं सजग होकर निज मन का,
भाव अब ग्रहीत कर लूं कोमल भोले पन का,
छोड़ूँ कपट भाव और दुविधा निर्जन वन का,
अब नूतन बन जाऊँ, निर्मलता के संग संवर लूं,
चेतना जागृत कर लूं, अब कहीं बहक न जाऊँ।।
पथिक हूं, प्रतिमानों का वृथा न लोभ करूं,
किंचित भय से हो मुक्त आगे को कदम धरूं,
चुन-चुन कर झोली भर लूं जीवन मकरंद,
निश्छल बन जाऊँ, अब तो वृथा न बात करूं,
जीवन सरिता का निर्मल नीर, अपनी गगरी भर लूं,
पथिक धर्म करूं स्वीकार, जातक धर्म निभाऊँ।।