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जीवन कुछ उलझा-सुलझा सा हैं। तभी तो इसकी चाल को कोई नहीं समझ सकता। हां, जीवन में हम कभी सुख का अनुभव करते हैं, तो कभी दु:ख के कारण हमारा मन द्रवित हो जाता हैं और ऐसा होता हैं परिस्थिति के कारण, जिसके आगे इंसान की एक नहीं चलती।
परंतु… परिस्थिति के दबाव का प्रभाव दिगंबर बाबू पर कभी भी नहीं पड़ा। क्योंकि’ वो जिंदादिल इंसान थे और किसी भी परिस्थिति में उनके होंठों पर मुस्कान विद्यमान रहती ही थी। वैसे भी धन-दौलत की कमी उनके पास थी नहीं। पुरखों के द्वारा छोड़ी गई अचल संपत्ति का सिंहासन, जो उन्हें इलाके में सबसे अमीर बनाता था। साथ ही युनिवर्सिटी के प्रोफेसर से रिटायर हुए थे और अब चुनाव लड़कर जिला पार्षद बन गए थे। साथ ही दोनों बेटे अखिल और आनंद, एक डाक्टर था, तो दूसरा नामी वकील।
इतना कुछ होने के बाद स्वाभाविक था, कोई तो प्रतिद्वंद्वी हो। कोई तो ऐसा हो, जो उनकी सफलता से, उनके व्यक्तित्व से और उनकी अकूत संपदा से जलन रखता हो। जो गाहे-बगाहे कहीं पर भी खड़ा होकर उनके लिए गालियां सुनाए, उनकी बुराई करें। उन्हें कहीं सामने से आते हुए देख ले, तो भीगे कोयले की मानिंद सुलगने लगे और जो हमेशा ही उनके अनिष्ट की कामना करें। साथ ही संभव हो, तो क्षति भी पहुंचाने की भरपूर कोशिश में तन-मन-धन से लग जाए।
और संयोग से ऐसा था भी। उनके ही पटीदार में राम सुयोधन ठाकुर, जो हमेशा उनकी सफलता से जलते रहते थे। उनके घर में छाई हुई शांति से उनके मन में बेचैनी होती रहती थी। बस’ मन में एक ही धारणा कि” कैसे भी हो, दिगंबर बाबू को पटकनी दी जाए। उनका समाज में जो रुतबा हैं, उसको धूल-धूसरित कर दिया जाए। उनके घर में छाई हुई शांति को अशांति में बदलने का प्रयास राम सुयोधन ठाकुर के द्वारा निरंतर ही होता रहता था। भले ही इसमें सफलता मिले, या नहीं मिले।
अब दिगंबर बाबू इतने तो बेवकूफ नहीं थे। वे राम सुयोधन ठाकुर के द्वारा किए जा रहे व्यवहार को, उनके मन की धारणा को अच्छी तरह से समझते थे। उन्हें अच्छी तरह से इस बात की जानकारी थी कि” उनका प्रतिद्वंद्वी भी हैं, जो उनसे हमेशा टकराने की मंशा रखता हैं। हमेशा उनकी बुराई करता हैं और अवसर मिलते ही सामने आने पर भी कीचड़ उछाल देता हैं।
परंतु... इस बात का उन्हें दु:ख नहीं होता था। उन्हें तो अच्छा ही लगता था कि” कोई तो हैं, जो उनकी मुखालफत करने का दम रखता हैं। जो हौसले के साथ उनकी अच्छाइयों में भी बुराई निकालने के लिए संघर्ष करता रहता हैं। कोई तो है्, जो गाहे-बगाहे उनके सामने चुनौतियाँ खड़ा करता रहता हैं, जिससे उनको बहुत कुछ सीखने को मिल जाता हैं।
बस” एक बात जो उनको राम सुयोधन ठाकुर का अखरता था, वह थी उसकी दानत। उसका जो उनके प्रति नुकसान पहुंचाने की मंशा थी न, उससे दिगंबर बाबू के हृदय को चोट पहुंचता था। उनका मन, भले ही प्रतिद्वंद्वी हो, परंतु स्वस्थ विचारों वाला हो। जो विरोध करें भी तो सार्थक करें, जिससे सभी का भला हो। परंतु….राम सुयोधन ठाकुर का व्यक्तित्व ऐसा बिल्कुल भी नहीं था। वो तो कलुषित मनोभाव में पलता हुआ व्यक्ति था। परिणाम, दिगंबर बाबू कभी-कभी जबावी कार्रवाई कर देते थे।
जिसका परिणाम यह होता था कि” राम सुयोधन ठाकुर को नुकसान उठाना पड़ता था। आर्थिक तौर पर और सामाजिक पटल पर मात खा जाता था वो। इसके साथ ही उसके मन की बौखलाहट और भी बढ़ जाती थी और वो दुगुने हौसले के साथ हमला करने की तैयारी में जूट जाता था। अपना एक निशाना चूक जाने के बाद दूसरा लक्ष्य साधने की तैयारी में जुट जाता था।
पापा जी!... आपकी काँफी!.. वह विचारों में खोए हुए थे, तभी छोटी बहू उनके लिए काँफी का मग ले आई और उन्हें इस तरह से विचारों में खोया हुआ देखकर बोल पड़ी।
अ... हां!.. सहसा ही आवाज सुनकर उनकी तंद्रा टूट गई। देखा, तो सामने छोटी बहू काँफी का कप लिए खड़ी थी। बस, तक्षण ही उन्होंने अपने मनोभाव को छिपा लिया और बहू के हाथ से कप लेकर काँफी का घूंट भरने लगे। जबकि उनकी बहू, जिसका नाम मेनका था। उसने उनके चेहरे को गहरी नजरों से देखा और गहरी सांस लेने के बाद बोल पड़ी।
पापा जी!.. आप आज कुछ उदास हैं। कुछ बातें हैं जो आपको अंदर ही अंदर कचोट रही हैं। परंतु… आप उस बात को, उस स्थिति को जज्ब करने की कोशिश कर रहे हैं।
ऐसा कुछ भी नहीं हैं बेटा!... तुम तो खामखा ही परेशान हो रही हो। बहू की बातों को बीच में ही काटकर बोल पड़े वो। फिर एक मिनट के लिए रुके और अपने चेहरे के हाव-भाव को ठीक किया। इसके बाद गंभीर होकर बोल पड़े। बेटा!... सच, अगर ऐसा कुछ होता, तो जरूर बतला देता। भला तुम लोगों से क्या छिपाना। तुम लोग ही तो हो, जिसके सहारे खुशी-खुशी मेरा बुढ़ापा कट रहा हैं।
कहा उन्होंने और कप को होंठों से लगा लिया और काँफी पीने लगे। परंतु…उनकी बातों से बहू संतुष्ट नहीं हुई। वो उनके करीब ही सोफे पर बैठ गई। फिर उनके चेहरे को अपने हाथों से थामा और अपने सामने कर लिया और उनके आँखों में झाँकने लगी अपलक, जैसे कुछ ढ़ूंढ़ रही हो। फिर कुछ पल विचार करती रही और फिर गंभीर होकर बोल पड़ी।
पापा जी!.. भले ही आप सामान्य दिखने की कोशिश कर रहे हैं, परंतु… सामान्य दिखने जैसी कोई बात नहीं हैं। बोलने के बाद एक पल के लिए रुकी वो, फिर से उनकी आँखों में देखा और आगे बोल पड़ी। पापा जी!...इसके उलट मैं दावे के साथ कह सकती हूं, आप रोना चाहते हैं, परंतु.. रो नहीं पा रहे हैं। बताइए न पापा जी!.. आपको हुआ क्या हैं?
बस यह सवाल और दिगंबर बाबू का धैर्य जबाव दे गया। जानते थे, बहुओं के सामने ज्यादा देर तक अपनी भावनाओं को दबाकर नहीं रख सकते। इनके सामने झूठ बोलने का कोई मतलब ही नहीं था। क्योंकि” बहू उनके घर की लक्ष्मी थी, जो उन्हें ससुर की तरह नहीं, बल्कि अपने पिता की तरह सम्मान देती थी। उनका पिता की भाँति ही ख्याल रखती थी। ऐसे में बहू मेनका ने जैसे ही उनके जख्मों पर अपनत्व का स्नेह लेप लगाया, उनके आँखों से अश्रु बिंदु झड़ने लगे। गला अवरूद्ध हो गया और लगा कि” अगले ही पल वो किसी बच्चे की मानिंद दहाड़े मारकर रोने लगेंगे। जबकि” उनके मन में उठते हुए भावनाओं के सैलाब को बहू ने तुरंत ही भांप लिया। तभी तो वह गंभीर होकर बोल पड़ी।
पापा जी!.. आप राम सुयोधन ठाकुर के अचानक ही दिवंगत हो जाने से दु:खी हैं।
हां बेटा!... भले ही वह हमसे बैर रखता था, परंतु… था तो इसी समाज का, हमारी बिरादरी का ही था वो। साथ ही बेटा!....एक वही था, जो मेरा प्रतिद्वंद्वी था। अब तो प्रतिद्वंद्वी” विहीन हो गया हूं। बहू की बातें सुनकर बहुत ही मुश्किल से कहा उन्होंने और अपना सिर झुका लिया। जबकि’ बहू उनकी बातों को सुनकर मुस्करा पड़ी, फिर बोल पड़ी।
पापा जी!.. तो आप उसके दरवाजे पर जाना चाहते हैं। दु:ख की इस घड़ी में उसके परिवार को संबल देना चाहते हैं। परंतु… वहां जाने के लिए हिम्मत नहीं जुटा पा रहे। कहा उसने और रुकी, फिर हाथों से उनके चेहरे को उठाया और आँखों में झांककर बोल पड़ी। तो पापा जी!... आप वहां जाइए और उन लोगों से मिलिये। वहां जाकर अपने प्रतिद्वंद्वी का अंतिम दर्शन कीजिए। क्योंकि” इसके बाद वह नहीं रहेंगे और उनकी प्रतिद्वंद्विता भी नहीं रहेगी आपके प्रति।
लेकिन बेटा!.. मैं वहां गया, तो अखिल और आनंद गुस्सा हो जाएंगे। बहू की बातों को सुनते ही कंपित स्वर में कहा उन्होंने। जिसे सुनते ही बहू मुस्करा पड़ी, फिर उनकी आँखों में देखा और ढ़ृढ़ता के साथ बोल पड़ी।
इस बात की चिंता आप नहीं कीजिए!... पापा जी!... इस वक्त आपको जिस बात से खुशी मिलती हैं, वह कीजिए। बाकी रही बेटों की बात, तो मैं देख लूंगी।
बहू ने कहा और दिगंबर बाबू को आंतरिक बल मिल गया। साथ ही बहू पर पिता का स्नेहिल प्रेम उमड़ आया। परंतु… यह समय आभार जताने का नहीं था। इसलिए इजाजत मिलते ही उठ खड़े हुए और तेजी से हवेली से बाहर की ओर लपके। फिर गांव की सड़क, जिसपर उनके पांव पड़ रहे थे। मन में उठते हुए तीव्र विचार और इसके बीच करुण भाव।
आखिरकार वो राम सुयोधन ठाकुर के दरवाजे पर पहुंच गए। देखा तो, राम सुयोधन का शरीर निष्प्राण होकर नीचे पड़ा हुआ था और लोग उसे अंतिम संस्कार में ले जाने की तैयारी में लगे हुए थे। उधर” जैसे ही उनपर गांव बालों की नजर पड़ी, सभी उनकी ओर सम्मान के साथ दौड़ पड़े।
खासकर राम सुयोधन के लड़के अमित और जगत। जैसे ही उन दोनों की नजर उनपर गई, लपक कर उनके करीब आ गए और विनम्रता से उनके चरण में झुक गए। ऐसे में दिगंबर बाबू का मन भी स्नेहिल हो उठा। उन्होंने दोनों को उठाकर गले से लगा लिया।
इसके बाद उन्हें बैठने के लिए कुर्सी दी गई और जैसे ही वो बैठे, गांव बाले उनको घेरकर बैठ गए और उनके साथ चर्चा करने में जुट गए। वही बीते समय की खट्टी-मीठी यादें। परंतु… उनका मन तो आहत था अचानक से ही राम सुयोधन के चले जाने से। आखिर वो उनका प्रतिद्वंद्वी था। ऐसे में उन्होंने मन ही मन फैसला कर लिया था कि” अपने प्रतिद्वंद्वी के अंतिम संस्कार में शामिल होने के बाद ही घर जाएंगे। आखिर” वह कमजोर था, जो दुश्मनी बीच में ही छोड़कर चला गया। परंतु….वो उसके अंतिम सफर तक अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे।