प्रीत की डोर सवा मन की'
बड़े यत्न लगे इसे संभालन की'
किंचित जो वे ध्यान हुआ हृदय'
प्रेम सुधा छलक पड़े रस प्यालन की।।
जो विरह के राग जगे मन में,
रहे सुधि नहीं तन का, नहीं मन का'
दुविधा के सागर में फिर बने वलय'
और बने कई-कई गुच्छ सवालन की।।
प्रेम का रंग है अति चित्र-विचित्र'
लगे ज्ञान के जोर से नहीं संभल सके'
जो बल का जोर लगे, बने टूट का भय'
मन द्वंद्व बने व्यर्थ जंजालन की।।
प्रेम भाव निष्प्राण नहीं, इसमें रस-राग बसा,
जब हिया स्नेह जगे, सुधि ना रहे तन की'
मन अनुराग लगे, जग लगे प्रीति मय,
रस धार बहे बांध तोड़ हृदय के तालन की।।
प्रीति डोर अति कोमल, हैं सूक्ष्म अति,
बिखर पड़े, जो किंचित भी प्रहार हुआ'
क्षणिक आनंद तो क्षण में विस्मय,
जो टूट पड़ी, टीस मचे हिया छालन की।।
प्रीति की डोर सवा मन का भार लिये,
कभी उठाव अधिक, कभी दाव अधिक'
मन प्रेम में डूबा जो, करो इसका जय-जय'
जमकर स्वाद चखो, प्रेम के सालन की।।