आज का समय बहुत तेजी से बदल रहा हैं, इतनी तेजी से बदल रहा हैं कि” कभी-कभी लगने लगता हैं, हमारी सोचने की रफ्तार ही धीमी हो गई हैं। हां, बीतते हुए रात के बाद आया हुआ हरेक नया सबेरा एक नए बदलाव के साथ ही हाजिर हो रहा हैं।
लेकिन’ बदलाव की इतनी तीव्र गति होने के बाद भी अगर नहीं बदला हैं, तो वह प्रेम हैं, क्योंकि’ यह विशुद्ध हैं। हां, जब हम प्रेम की बात करते हैं, तो स्वतः ही संपादित हो जाता हैं कि” यह मानव के अंत:करण से उपजी हुई शाश्वत भावना हैं, जिसका स्राव सदियों से-अनादि काल से चला आ रहा हैं। यह वो भावना हैं, जिसका निर्माण ही सृष्टि के संचालन, इसका संवहन और प्रगति के लिए किया गया हैं।
अन्यथा तो, अगर यह भावना नहीं होती, इस संसार में प्रेम नहीं होता, तो हम इस संसार की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। जी हां, कल्पना करने की बात तो छोड़िए, संसार चक्र कब का अवरुद्ध हो गया होता। इसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। क्योंकि’ संसार का पहला केंद्र परिवार होता हैं और इससे ही संसार का निर्माण हुआ हैं और परिवार का आधार-स्तंभ ही प्रेम हैं।
हां, प्रेम ही वह शब्द हैं, जो तमाम रिश्ते को आपस में बांधकर रखता हैं और जीवन के संचालन में अपना अहम योगदान प्रदान करता हैं। तभी तो, प्रेम की युगों से पुजा होती आई हैं। इसका धर्मग्रंथों ने समर्थन किया हैं और मानव दर्शन तो इसके ही गुणगान से अटा पड़ा हैं।
इसका मतलब यह कतई नहीं हैं कि” मानव को छोड़ कर प्रेम की भाषा” और कोई नहीं समझता। मतलब साफ हैं, इस चराचर जगत में जितने भी जीव-जंतु हैं, जड़-चेतन हैं, प्रेम की भाषा समझते हैं। लेकिन’ उनमें प्रेम की भावना समयानुकूल होता हैं, साथ ही उनके लिए प्रकृति की व्यवस्था और सामाजिक नियमों के बंधन का अभाव भी हैं, जिसके कारण कई बिंदु पर उनका प्रेम स्वार्थ में बदल जाता हैं।
लेकिन मानव, वह तो प्रेम के ऐसे बंधन में जकड़ा हुआ हैं, जो उसके जीवन संचार का संगीत स्वरूप हैं। साथ ही, इतना कुछ समझने के बाद भी मानव प्रेम” शब्द को पूर्ण रूप से समझना चाहता हैं। उसके मन में इस शब्द को जान लेने का आकर्षण, इसको समझ लेने की उत्कंठा निरंतर ही बढ़ती रहती हैं।
परंतु…यह मानव का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा, जो इसका रुप विशुद्ध नहीं रहा। जी हां, बाजार में मिलते हुए भेल की तरह ही इसमें आज स्वार्थ, लालच, छल और असामाजिकता मिल गई हैं। मतलब साफ हैं, आज प्रेम भी बाजार में मिलने बाली वस्तु के समान हो गया हैं। यह अपने वास्तविक रुप-गुणों को खोता जा रहा हैं और हम और आप, इसको अपने सुविधा अनुसार आकार दे रहे हैं।
बस’ इसके गलत रुप चित्रण का परिणाम भी दृष्टिगोचर होने लगा हैं, जो आज-कल विवाहेतर-संबंध, अनुचित प्रेम संबंध, संबंध-विच्छेद और अश्लील कृत्य के रुप में हमारे सामने दृष्टिगोचर हो रहा हैं। आज-कल इसका स्वरूप इतना बदल दिया गया हैं, जिसके कारण परिवार रूपी संस्था टूटकर पूरी तरह से बिखर गई हैं और इतना कुछ होने पर भी हम संतुष्ट ही नजर आ रहे हैं।
हम आज जिसे प्रेम कह रहे हैं और संतुष्ट हो रहे हैं, वह इसका वास्तविक रूप ही नहीं हैं। जी हां, प्रेम का रुपक कभी व्यवहारिक नहीं हो सकता। प्रेम शब्द” को स्वार्थ के चादर में लपेटना भी गलत हैं और इसको सिर्फ अपनी भावनाओं की संतुष्टि-जिस्मानी जरूरतों तक सीमित नहीं किया जा सकता।
साथ ही ध्यान देने योग्य बात यह भी हैं, आज युवा इस शब्द का कुछ ज्यादा ही उपयोग कर रहे हैं। वे, जब उनका उम्र ज्ञान अर्जित करने का होता हैं, खुद को स्थापित करने का होता हैं, ऐसे समय में जिस्मानी जरूरतों को ज्यादा तवज्जोह देने लगे हैं। उसमें भी, बिना प्रेम के असली स्वरूप को समझे, मिलावट किए हुए उस बाजारी शब्द का समर्थन करके, जिसका नाम प्रेम हो ही नहीं सकता।
क्योंकि” प्रेम तो विशुद्ध हैं और इसे पारिवारिक संस्था-गत मूल्यों से संचालित किया जाता हैं। सामाजिक नियमों के द्वारा नियंत्रित किया जाता हैं। प्रेम” वह भाव है, जिसमें वात्सल्य भाव का प्रवाह हैं, परस्पर स्पंदन का आरोह- अवरोह हैं, तो नैतिक जिम्मेदारी और मानक मूल्यों के सुरक्षा की गारंटी समाहित हैं।
प्रेम वह शब्द हैं, जो दायित्वों से बंधा हुआ होता हैं। इसमें अनुभूति की गरमाहट हैं और त्याग का भाव भी। यह पा लेने की अपेक्षा, जिसे चाहता हैं, उसके लिए न्योछावर हो जाना ज्यादा पसंद करता हैं। यह मन का उमंग हैं, जीवन के लिए ऊर्जावान तरंग हैं। हां, प्रेम वह शब्द हैं, जो अपने किसी आकार-किसी प्रारुप में हो, किन्तु” मानव के सशक्त जीवन के लिए अति आवश्यक हैं।
परंतु….बाजार वाद की धारणाओं ने आज इसके अर्थ को सिरे से ही बदल कर रख दिया हैं। मतलब कि” आज प्रेम को सिर्फ आकर्षण, सुंदरता और जिस्मानी जरूरतों के ही मापदंड पर मापा जाने लगा हैं। साथ ही रिश्तों में प्रेम की प्राथमिकता स्वार्थ-पूर्ति होने के उद्देश्य तक ही सिमट कर रह गई हैं।
ऐसे में जरूरत इस बात की हैं कि” हम और आप जागृत हो जाए और इस विषय पर गहन मंथन करें। इस शब्द के वास्तविक मूल्यों की स्थापना करने के लिए प्रयासरत हो जाए, अन्यथा तो परिणाम भयावह होगा। जो कि” मानव सभ्यता के लिए त्रासदी से कम नहीं होगा।
चलते-चलते फिर कभी...