कहना तो अतिशयोक्ति होगा कि प्रेम को किसी ने समझ लिया" यह संभव हो ही नहीं सकता कि कोई इश्क के इस अथाह सागर को पार पा ले। जहां तक मुझे मालूम है कि आज तक कितने ही कवियों ने, लेखकों ने और तो और भाषाविद ने इसकी नई- नई थ्योरी दी, नये रंग-ढंग से इसकी व्याख्या की, कई लाखों ,जो अगणित हैं। जिसकी गिनती करना ही मुमकिन नहीं, इस पर कविताएँ लिखी गयी। पर आज तक इश्क का पन्ना कोरा का कोरा ही है। क्या है यह, कलम की रचना या सपनों का प्रतिबिंब।
यह महत्व की बात है और सार्थक भी। क्योंकि” आज के दौर में प्रेम के रुप को’ उसके स्वरूप को समझना अति आवश्यक हो गया है। इसलिये आज इसके रुप, गुण और धर्म को समझने की जरूरत आ गयी है कि” परिस्थिति कुछ बदल-बदल सा गया है। आज जिस तरह से नयनों को आपस में मिलते ही प्रेम की हामी भरी जाती हैं, वो विस्मय उत्पन्न करने बाला है। इस कारण से आज जरूरत है कि” इसपर मंथन किया जाये कि” यह है क्या चीज?
कलम की रचना पूर्णतः: हो ही नहीं सकता, क्योंकि अगर ऐसा होता तो इसे अब तक कागज के कोरे टुकड़े पर पूर्ण रूप से उकेरा जा चुका होता। तो क्या यह सपनों का प्रतिबिंब है, अगर ऐसा भी होता तो काश राधा अकेली मधुवन में भटकती ना होती और श्री कृष्ण कभी मुरली ना तोड़ते। लैला और मजनू कभी इसमें पागल ना होते और हीर-रांझा की मिलन हो चुकी होती। तो फिर क्या है यह इश्क?
इसमें ऐसा क्या है कि इंसान खुद को भूल जाता है, अपने उन तमाम आशाओं, तृष्णाओं को अपने प्रियतम/प्रियतमा से जोड़ डालता है। वो खुद को भूलने लगता है और इस हद तक कि उसे किसी की परवाह भी नहीं होती। इस एक शब्द के लिए कवि कविता के नये-नये प्रयोग करने लगता है, पर उसका प्रयोग पूरा ही नहीं हो पाता। वो शायद इस शब्द के मर्म को समझ लेना चाहता है, परंतु नहीं। इश्क उसके कविता में सिमट नहीं पाती। वो तमाम लेखक जो आदिकाल से अब तक इश्क पर नये-नये रिसर्च कर चुके है, नये चरित्र को कागज पर उतार चुके है। किन्तु यह उनके रचना में भी सिमट नहीं सकी।
क्या इश्क में विह्वल नायक का अपने नायिका के आँखों में एक-टक देखना, उसके रूप लावण्य में डूब जाना और नायिका द्वारा विस्मय प्रदर्शित करना, बस इतना तक ही इसकी सीमाएँ है। नहीं-नहीं बिल्कुल नहीं, अगर ऐसा होता तो इश्क कवि की विरह वेदनाओं में नहीं उभड़ता। तो फिर नायक के दिल में, नयनों में प्रियतमा के लिये आतुरता और नायिका का विस्मय, फिर क्या है। रोज-रोज ही प्रेम के नये-नये अध्याय क्यों बनते है और क्यों लिखे जाते है।
चाहत का अजीब रस्मों-रिवाज है, जहां हम ठोकर खाते है ना जनाब, इस दिल को वहीं पर सुकून मिलता है। इश्क की अजीब सी रस्मों रवायत है, ना जाने कब कहां, ना जाने किस राह में चलते-चलते किस अंजाने से हो जाए। समझ ही नहीं आता है और फिर इंसान उसका ही होकर रह जाता है, जिससे उसने नैना को मिलाया था ।वो तो बस शागिर्द होकर रह जाता है दिलों के हाथों इश्क का।
अगर यह नहीं होता जनाब तो लैला बिल्कुल ही काले रंग की थी, ना रंग ना रूप, लेकिन जब नौजवान मजनू उसके इश्क के रंग में रंगा ना तो उसका ही होकर रह गया, मानो कि एक रूप हो गया हो। कलमकार की रचना भी तो उसी लीक पर चलती है, कलमकार भी तो इश्क के उस अनछुए पहलू को अपने कलम के माध्यम से रिक्त कागज के हृदय पर पूर्ण रूप से उकेर देना चाहता है। संभवतः वो अपने प्रयास में कामयाब भी हो जाता है, वो कागज के कोरे पन्नों पर इश्क को एकरूप करने में सफल भी हो जाता है।
किन्तु तभी उसे पता चलता है कि इश्क का एक रूप छुपा ही रह गया, वो तो समझ ही नहीं सका, उस रूप को। उसे वो अपने कलम की जद में कैद नहीं कर सका और फिर से वो उसी पूर्णांक बिंदु पर आ जाता है, जहां से चल कर उसने लिखने की शुरूआत की थी।
इश्क की रवायतें भी तो अजीब है, इसे उम्र की परिधि से नहीं बांधा जा सकता, सुन्दरता की जंजीर से कैद नहीं किया जा सकता और ना ही यह सामाजिक नियम कानून के दायरे में फंसता है। इश्क आजाद था, यह आजाद है और आजाद ही रहेगा, नहीं तो ब्रह्मर्षि विश्वामित्र रंभा के रूप लावण्य में नहीं खोते। यह तो प्रेम का अखण्ड प्रताप ही है कि ऋषि विश्वामित्र रंभा के ही होकर रह गए। प्रेम मिलन का आनंद है तो वियोग की रिक्तता भी। इसमें मिलन की मधुर लावण्य है तो विरह-विछोह की तीव्र धारा भी।
यह कवि के कविता में उन्मुक्त होकर प्रवाहित होता है, स्वच्छंद होकर विचरण करता है और कवि उसी के रहस्यवाद में खोकर डूबता-उतरता बस लिखता जाता है। अनंत काल से बस यही क्रम चलता आ रहा है, कवि समझ ही नहीं पाता कि वो प्रेम के किस अध्याय को लिख चुका है और नया अध्याय शुरू हो जाता है।
बदलाव तो है और होगा भी क्यों नहीं, जीवन का नाम ही तो बदलाव है। समय के साथ-साथ रिश्तों की डोर बदल जाती है, समय के साथ ही अपने पन का एहसास बदल जाता है। दिन बदलता है, रातें बदलती है और क्रमवार तरीके से महीनों में बदल कर शाल बदल जाता है। नव वर्ष पर हम खुद को सजाते हुए रिश्तों की परिभाषा को सिरे से ही बदल डालते है।
बदलने का यह क्रम निरंतर द्रुत गति से बढता रहता है और ना जाने समय के इसी उलट-फेर में कितनी बार इतिहास बदल गया ।लेकिन एक चीज जो नहीं बदला, वो है प्रेम, ना जाने कैसी कशिश है इस ढाई अक्षर के शब्द में। इसमें तो नित नव नूतनता आती ही जाती है और यह जाल की तरह उलझता-उलझता ही जाता है।
ऐसा तो क्या है इसमें कि कवि के द्वारा यह व्यक्त किया जाता है फिर भी अव्यक्त ही रह जाता है। क्यों लेखक के कलम द्वारा यह जकड़ा नहीं जाता। कवि तो यूं ही अपनी भाव-भंगिमाओं द्वारा उत्साहित होकर इसे अपने कविता में शब्द:श उतार देता है। लेखक के कलम से यह आच्छन्न रस सा कागज के हृदय पर छलक उठता है।
कवि चैन की सांस लेता है और लेखक को गुमान होने लगता है कि जो इश्क का अव्यक्त भाग था, उसने तो कागज पर उकेर दिया। तभी दोनों को तीव्र झटका लगता है ,उन्हें यह रियलाइज होता है कि प्रेम के उस अदृश्य रूप को तो अपनी रचना में उकेरना ही भूल गये।
ऐसा किसी के भूल का परिणाम नहीं है, वरन यह कहना यथार्थ होगा कि इश्क का पुरा व्यक्त रूप तो अदृश्य है, इसका रूप तो विराट स्वरूप है तो कागज पर कैसे व्यक्त हो सकता है। बस आपने इसका एक रूप अंकित किया और दूसरा स्वरूप दृश्यमान हो उठा। प्रेम विह्वल है, यह अजेय है, तो इसपर विजय कैसे हो सकता है। यह प्रेम ही तो है, जो हमें ईश्वर की अनुभूति करवाता है।
प्रेम ही तो है, जो सृष्टि का आधारभूत स्तंभ है। किन्तु” यह पूर्ण शब्द नहीं है, क्योंकि इसके बीच की संख्या आधी ही रह गयी है। शायद इसलिये ही प्रश्न भी उत्पन्न हुआ है, जो अनादि काल से है और अनादि काल तक जस का तस बना ही रहेगा। गूढ़ और रहस्यमय, जो मानव मन को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करता रहे। फिर भी:-
मैं ढूंढता हूं, तब तक आप भी जबाव ढूंढ कर रखें।
कलम से -