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आज-कल जो एक नया सा प्रचलन चल पड़ा हैं, प्रेम के स्वीकारोक्ति एवं इजहार के तरीको का, साथ ही उससे उत्पन्न हुए रिक्तता का भी, जो कि" अतिशय प्रभावशाली हैं और जिसने हमारी संस्कृति पर प्रहार किया हैं। प्रेम' जो कि" एक अबुझ पहेली हैं और अब तक इसको सुलझाने की कोशिश ही चल रही हैं। परंतु... आज के बाजार-बाद ने इसको व्यापार में भुनाने की प्रक्रिया कब की शुरु कर दी हैं और उसके वृहद जाल को फैला दिया गया हैं। 

हां, इसका असर तो हुआ हैं और वह भी व्यापक स्तर पर। आज के युवा, खासकर भारत के, उसमें भी जो सनातन संस्कृति से रिलेटेड हैं, वे इस बाजार के द्वारा बनाए गए प्रेम के स्वरूप को ही वास्तविक समझ बैठे हैं, तभी तो' उसके अनुरुप ही कार्य करते हैं। उनका व्यवहार भी बाजार के अनुरूप ही होता हैं और ज्यादातर मामलों में प्रेम का यह रूप बाजार के जितना टिकाऊ भी होता हैं, जिसकी एक्सपायरी डेट निर्धारित होती हो जैसे। 

कहने का तातपर्य इतना ही हैं कि" प्रेम को किसी प्रकृया के तहत संचालित नहीं किया जा सकता। यह कोई उपहार की वस्तु नहीं हैं कि" किसी को हमने उपहार दे दिया और उससे प्रेम हो गया, अथवा उसपर दावा ठोक बैठे कि" मुझे तो तुम से प्रेम हैं। बस' अब तुम्हारा भी दायित्व बनता है, मुझ से प्रेम करो। अजी नहीं, ऐसा बिल्कुल भी नहीं हैं, क्योंकि' प्रेम स्वच्छंद हैं। फिर तो' इसमें न तो गंध हैं और न ही इसका कोई आकार-प्रकार हैं, जो इसे सुंघकर अथवा इसको स्पर्श कर के इसकी अनुभूति पा सके।

प्रेम' मन के अनंत गहराईयों से प्रगट होने बाला भाव हैं, जो सहज आकर्षण तो कदापि भी नहीं हो सकता। आकर्षण तो वासना का केंद्र हैं, जिसमें पा लेने की इच्छा प्रबल होती हैं। परंतु... प्रेम में ऐसा कुछ भी बंधन नहीं हैं, अथवा हठाग्रह का जगह नहीं हैं। मतलब साफ हैं, प्रेम लेने की अपेक्छा देने की प्रवृति में ज्यादा विश्वास रखता हैं। तभी तो' यह ढ़ाई आखर का शब्द अभी तक अबुझ पहेली ही बना हुआ हैं, जिसे सुलझाया नहीं जा सका हैं।

वैसे भी परिवर्तन तो समय का होता हैं, स्वभाव का नहीं और यह निर्विवादित सत्य हैं कि" प्रेम समय से बंध सके, ऐसा नहीं हैं। यह स्वभाव" आप रूप प्रगट हुई भावना हैं, जिसे अब तक न जाने कितने ही मनीषियों ने अपने अथक प्रयास के द्वारा उकेर देने का प्रयास कर चुके हैं। परंतु...अब तक यह नहीं कहा जा सकता, किसी को भी स्पष्ट रूप से सफलता मिली हो। अब भले ही आज का बाजारबाद इसको सुलझा लेने का दावा करता हो, परंतु... अभी भी यह एक अबुझ पहेली ही बना हुआ हैं। खैर" मैं तो कब से इसी प्रयास में जुटा हुआ हूं कि" इसको सुलझा लूं। इस बीच आपको अगर इसका जबाव मिले, तो जरूर बतलाइए कि" प्रेम कवि की रचना हैं, अथवा सपनों का प्रतिबिंब?

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