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हां, विषय बिंदु को जिस तरह से लिया गया हैं, वह पूरे लेख को अपने आवृति में ले रहा हैं। बात वो जो सामाजिक उत्थान का हैं, क्योंकि’ समय के साथ बदलाव अवश्यंभावी हो जाता हैं। इसके साथ ही समाज के लिए निर्धारित नियमों में भी अमूल-चूल परिवर्तन होता हैं।

लेकिन’ आज जिस तरह से बदलाव हो रहा हैं, वह यथार्थ के पृष्ठभूमि पर सही हैं?...प्रश्न हैं, जो सहज ही उठता हैं, क्योंकि’ आज हर तरफ अफरातफरी का माहौल बना हुआ हैं। जिधर नजर घुमाइए, एक शंकास्पद स्थिति का निर्माण हो चुका हैं। ऐसे में कहा जा सकता हैं कि” जो बदलाव हुआ हैं, अथवा जो हो रहा हैं, इसके अलावा जिस बदलाव के लिए कुछ मुट्ठी भर बौद्धिक सिफारिश करते हैं, उसकी सार्थकता हैं भी, या नहीं।

क्योंकि’ जिधर भी नजर घुमाओ, उधर ही एक अजीब से विरोधाभास का सामना करना पड़ेगा। कुछ बिंदु पर तो अर्थ ही अनर्थ सा होता हुआ प्रतीत होगा, तो कुछ जगहों पर बदलाव की दशा और दिशा, दोनों ही संकुल परिधि से बाहर होकर त्रिशंकु बन गया है।

मसलन, राजनीति की ही पहले बात कर लेते है। तो’ राजनीति का मतलब हैं, वो नीति-नियम, जो राष्ट्र के हित में हो और राष्ट्र के उत्थान के लिए एक आधार स्तंभ बनाए। क्योंकि’ राष्ट्र से उस भू-भाग में जुड़ा हुआ प्रत्येक व्यक्ति हैं और प्रत्येक व्यक्ति’ जो उस भू-भाग में रहता हैं, जिससे मिलकर राष्ट्र का निर्माण होता हैं।

ऐसे में राष्ट्र नीति, अथवा राजनीति से उस भू-भाग में बसने बाला प्रत्येक व्यक्ति प्रभावित होता हैं। तो’ राजनीति में बदलाव रचनात्मक होना चाहिए था, लेकिन’ हुआ उलटा और अभी भी क्रम जारी ही हैं। हां, आज राजनीति ज्यादातर स्व हित, परिवार हित और पार्टी हित के आस-पास ही सिमटा हुआ हैं, कुछ अपवाद को छोड़ कर। जो कि” निरर्थक बदलाव की पुष्टि करता हैं।

इतना ही नहीं, सामाजिक स्तर पर भी जो बदलाव हुए है, अथवा अभी भी जारी हैं, वह भी वृथा ही हैं। क्योंकि’ इस बदलाव ने सामाजिक ढांचे को ही निगल लिया है। इतना ही नहीं, मानवीय संवेदना, आपस में सहयोग की भावना और एकत्व का वह भाव, जो समाज की पुजी होता था, अब सिर्फ अवशेष के रुप में बचा हुआ हैं।

हां, इस बदलाव के नकारात्मक प्रभाव का असर जरूर समाज पर हुआ हैं। जिसके कारण समाज के अंदर स्वार्थ की बहुलता हो गई हैं। आज जो कि” प्रत्येक व्यक्ति’ कुछ प्रतिशत को छोड़ दिया जाए, तो हमेशा द्वेष की अग्नि में ही जलते रहते हैं। आज समाज में मुख्यतः इन बातों पर ही जोर दिया जाता हैं कि” अगले को कैसे भी कर के आगे बढ़ने से रोका जाए।

इसी तरह से पारिवारिक स्तर पर भी जो बदलाव हुए है, उन्हें भी नकारात्मक ही कहा जा सकता हैं। क्योंकि’ बदलाव तो रचनात्मक होता हैं, ऐसे में परिवार का बहिर्मुखी विकास होना चाहिए था। परंतु….उसकी जगह पर परिवार में कर्तव्य हीनता, द्वेष, स्वार्थ और स्व हित जैसे दूषण पनप गए। जिसका परिणाम यह हुआ कि” परिवार का रूप ही सिमटता चला गया। इसमें भी सरकार की ओर से फैलाई जा रही जागृति कि” हम दो, हमारे दो’ ने तो जैसे तुषारापात ही कर दिया हैं।

हां, आज जिस तरह से प्रयोगिक रूप में परिवारों का आकार सिकुड़ गया हैं, वह वास्तव में मन को विस्मित करने बाला हैं। साथ ही इस बदलाव ने नव-युवा हृदय को ही नुकसान पहुंचाया हैं। हां, पहले’ जो संयुक्त परिवार होता था, उसमें नियमों की एक रेखा खिंची होती थी। भले ही, उसमें बदलाव की आहट नहीं थी, लेकिन’ अनुशासन का एक सुढ़ृढ़ तंत्र था। जहां पर बच्चों के लिए बिगड़ने की जगह नाम मात्र ही होता था।

लेकिन’ बदलाव के इस असंतुलित और विषम बयार ने तो सब कुछ उथल-पूथल कर के रख दिया हैं। हां, आज का बच्चा जन्म लेने के साथ ही “मैं” भाव का शिकार हो जाता हैं। जिसके कारण वह जैसे-जैसे बड़ा होता जाता हैं, अधिक स्वतंत्रता की अपेक्षा को पालता जाता हैं। जो कि” उसमें संस्कारों का सिंचन तो नहीं हो पाता, हां’ अवगुणों की खान जरूर उसमें पनपने लगती हैं।

अब’ आते हैं व्यक्ति-या व्यक्तित्व के बदलाव पर, तो यहां पर भी बदलाव से कोई ध्येय सिद्ध नहीं हो सका हैं। जो कि” होना तो यह चाहिए था कि” बदलाव का आधार लेकर मानव अपने गुणों का विकास करें। वह सुव्यवस्थित तरीके से अपने अंदर के श्रेष्ठ गुणों का विकास कर सके और परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी सिद्ध हो। लेकिन’ ऐसा संभव नहीं हो पाया हैं।

बस’ कहने का तात्पर्य इतना ही हैं कि” जिधर को बदलाव होना था, ठीक उसके विपरीत दिशा में हो रहा हैं। बिल्कुल ही अनुपयोगी और निरर्थक। हां, इसे सार्थक तभी कहा जा सकता हैं, जब यह उन ध्येय को पूरा कर सके। जिसमें मानव के अंदर के गुणों का सकारात्मक विकास हो।

फिर कभी……

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