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अपनी बात शुरु करने से पहले कहना चाहूंगा कि” आज जब चारों ओर नजर घुमाकर देखता हूं, तो जीवन बे-रस सा नजर आता हैं। जो जीवन का उमंग होना चाहिए, वह कहीं खो गया हैं, धूमिल सा हो गया हैं। गांव हो या शहर, सामाजिकता, परिवार का लचीलापन और रिश्तों के तार टूट कर बिखर गए हैं और उसकी जगह स्वार्थ ने ले लिया हैं, जो चिंतन का विषय हैं। यही आज का शीर्षक भी हैं।
आज जो भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति हैं, वह भारतीय सभ्यता के अनुकूल बिल्कुल भी नहीं हैं। हां, यह सत्य हैं कि” आज जो पढ़ाया जाता हैं, वह सिर्फ और सिर्फ जीविकोपार्जन के गुणों को सिखलाने बाला हैं। यह अर्थ की उपयोगिता का संदर्भ समझाने की जगह अर्थ के संचय पर बल देता हैं, जो कि” भारतीय सभ्यता के अनुरूप तो बिल्कुल भी नहीं कहा जा सकता।
अब भले ही बौद्धिक कहलाने बाले वर्ग की विशेष संख्या मेरी बातों से असहमत हों, परंतु मैं जो कह रहा हूं, तर्क संगत हैं। क्योंकि’ जब हमारी सभ्यता के अनुरूप शिक्षा थी, उस समय हम सोने की चिड़ियां कहलाते थे। अब भले ही व्यापार के गुणों से ओतप्रोत यह पठन शैली पश्चिमी देशों के अनुकूल हो, लेकिन हमारे लिए तो बिल्कुल भी नहीं। क्योंकि’ भारतीय सभ्यता के अनुरूप जो शिक्षण शैली थी, वह हमें चिंतन की ओर अग्रसर करती थी। उस समय हमारी ज्ञान पिपासा बुझने की जगह और प्रज्वलित रहती थी।
परंतु….आज की शिक्षा नीति में इस तरह के उत्प्रेरक बल की बहुत कमी हैं, क्योंकि’ आज जो पठन-पाठन हो रहा हैं न, वह सिर्फ रोजगार की महता को दर्शाता हैं। हां, इस बात को मैं बार-बार कहूंगा कि” हमारी सभ्यता के अनुकूल ही शिक्षा नीति बनाने की जरूरत हैं और वर्तमान सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए। इस विषय पर गहनता से मंथन करना चाहिए और स्पष्ट रुप से इस दिशा में कार्य करते हुए इस तरह की शिक्षा नीति बनानी चाहिए, जिसमें भारतीय सभ्यता का सुगंध समाहित हो।
तब जाकर ही हमारी वर्तमान और आने बाली पीढ़ी चिंतनशील बन सकेगी और अगर ऐसा हुआ, तो फिर चिंतन से चैतन्य होने में देर नहीं लगेगी। हमारा परिवार, समाज और राष्ट्र चैतन्य हो उठेगा। सजीवता की निर्मल आभा चारों ओर बिखर उठेगी। अन्यथा तो, आज जिस तरह से अनाथालय और वृद्धाश्रम का तेजी से विकास हो रहा हैं, वह दिन दूर नहीं, जब शहर-शहर और गांव-गांव इस तरह की संस्थाएँ पनप उठेगी।
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि” आज के हालात ही कुछ इस तरह के हैं। आज जिस तरह से वर्तमान शिक्षा को पाकर इंसान भाव-शून्य होता जा रहा हैं, वह वास्तव में भय उत्पन्न करने बाला हैं। क्योंकि’ वर्तमान पठन-पाठन में मानवीय मूल्यों की शिक्षा दी ही नहीं जाती। भारतीय सभ्यता के उन मूल्यवान संस्कारों का आज सर्वथा अभाव सा दिखता हैं इस नीति में।
हां, हम भारतीय हैं और भौगोलिक, सांस्कृतिक अथवा सामाजिक दृष्टिकोण से हमारी आवश्यकताएँ और अपेक्षाएँ विश्व जगत से अलग हैं। हमारा पहनावा अलग हैं, हमारा खान-पान अलग हैं और रीति-रिवाज भी अलग हैं। तो फिर शिक्षा की अवधारणा भी अलग होनी चाहिए।
इसका मतलब यह नहीं हैं कि” मैं यह कह रहा हूं कि” वर्तमान के साथ कदम मिला कर मत चलो। समय के साथ चलने की प्राथमिकता हर उस समाज की होनी चाहिए, जो खुद का विकास चाहता हैं। इसका मतलब यह भी नहीं हैं कि” हम दूसरे का अंधा-अनुकरण करने लगे। जो कि” वर्तमान में धड़ल्ले से हो रहा हैं। हां, आज के समय में मैं निर्विवाद रुप से कह सकता हूं कि” हमारा अपना कुछ भी नहीं रहा। न खान-पान, न पहनावा और न ही सामाजिक कार्यक्रम।
कहने का मतलब हैं कि” आज सांस्कृतिक कार्यक्रम हो, सामाजिक आयोजन हो, परिधान हो, अथवा खान-पान, पश्चिम हम पर हावी हो चुका हैं। पूरी तरह से भेल सा बना चुका हैं, परंतु दु:ख इस बात का हैं कि” हम इसमें गर्व की अनुभूति करते हैं, जो कि” सर्वथा अनुचित हैं।
हां, जरूरत हैं आज कि” हम अपने जड़ों की ओर लौटे। उस शिक्षा पद्धति को अपनाएँ, जो कि” हमारी सभ्यता के अनुकूल हैं। जो हमें चिंतन करने की प्रेरणा दे। हमें उन मानक मूल्यों से पहचान करवाएँ, जिससे हम बिछड़ चुके हैं। हमें यह बोध करवाएँ कि” हम वास्तव में कौन हैं? तब जाकर ही चिंतन करने का हमारा प्राकृतिक गुण जागृत होगा और हम चैतन्य हो पाएंगे।
आगे फिर कभी...