ईश्वर, जो कण-कण में व्याप्त हैं, क्योंकि’ दिन हैं, तो रात हैं और रात के बाद दिन निर्धारित समय पर हो ही जाता हैं। साथ ही हम जो आक्सीजन लेते हैं, हम जो जल पीते हैं और हमारे लिए भोजन की व्यवस्था प्रकृति करती हैं। इतना ही नहीं, प्रजनन और विसर्जन का काम भी संभालती हैं।
तभी तो’ असंख्य जड़-चेतन के बीच अनोखा संतुलन बना रहता हैं। ऐसा कोई साधारण तत्व के बस की बात नहीं, तो निश्चित ही हैं, प्रकृति को जो नियंत्रित करता हैं, वह सार्वभौम सत्ता हैं, जिसे हम ईश्वर कहते हैं। तो फिर उनकी उपासना के अवधारणाओं में बदलाव कैसे संभव हो सकता हैं?
हां, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि” समय चक्र प्रभावी हैं और यह अपने बढ़ते हर कदम के साथ एक नया बदलाव ले आता हैं। यही प्रकृति का शाश्वत नियम हैं, क्योंकि’ समय चक्र प्रकृति के द्वारा नियंत्रित होता हैं। परंतु….भक्ति और ईश्वर का एक-दूसरे से पूरक भाव हैं, इसलिए भक्ति की अवधारणा पर समय चक्र का कोई प्रभाव न तो अब तक पड़ा हैं और न ही कालांतर में पड़ने बाला है्।
हां, भक्ति वह भावना हैं, जो हृदय की गहराई से प्रस्फुटित होता हैं। हम ईश्वर से जुड़ना चाहते हैं, उनका सानीध्य चाहते हैं तभी तो उनकी ओर खिचे चले जाते हैं। फिर तो, उनसे संबंध स्थापित करने का प्रयास करने लगते हैं। उनकी सेवा करने के लिए उद्धत होते हैं और मन में धारणा रखते हैं, हमने जो भोजन-राग बनाया हैं, हमारे आराध्य उसका भोग लगा ले।
यह भाव हैं, जो सहज ही हैं, जो सदियों से उसी रूप में चला आ रहा हैं। मतलब, तब भी सबरी थी और उन्होंने रामचंद्र का जिस तरह से युगों तक इंतजार किया था, वह जग विदित हैं। उन्होंने जिस तरह से अपने आराध्य के लिए वाट निहारा था, वह भान अनुकरण करने योग्य हैं। फिर तो, जब श्री राम जब उनके आश्रम में आए, उन्होंने जिस तरह से जूठे वैर से उनकी सेवा की, उसमें एक अनोखी वात्सल्यता झलकती हैं। ईश्वर और जीव के बीच प्रगाढ़ प्रेम का प्रवाह दिखता हैं।
वही प्रेम, वही भावना आज भी भक्ति में हैं। भले ही समय चक्र बदल गया हैं और युगों बीत गया हैं, परंतु….आज भी, जिसके हृदय में सबरी बनने की उत्कंठा हैं, वह रामचंद्र के लिए वाट निहारती हैं। आज भी भक्ति योग में डूबी हुई सबरी हैं, जो अपने आराध्य से लाड लड़ाना चाहती हैं। उनकी सेवा में अपना सर्वस्व निछावर कर देने के लिए तत्पर रहती हैं।
बिल्कुल वही भाव, भले ही युगों बदल गया, लेकिन भाव-प्रवाह में कोई भी बदलाव नहीं हुआ हैं। हां, यह ठोस आधार हैं, समय-चक्र का बदलाव भक्ति-भावनाओं पर प्रभावी नहीं हैं। तभी तो’ भगवान ने जहां भी अवतार लिया हैं, वहां पर वहीं नवीनता हैं, वही रस-प्रवाह हैं, वही प्रेम रस की धारा हैं।
हां, आज भी रामायण की पंक्तियाँ पढ़ते हुए कभी-कभी राम-रुप का झलक मिल जाता हैं। कभी-कभी मन वैराग्य की धारा में प्रवाहित होने लगता हैं, तो कभी-कभी लगने-लगता हैं, जैसे ईश्वर ने अभी ही तो अवतार लिया हैं। वह काल-खंड, जो बीत चुका हैं, अचानक ही सदृश्य हो जाता हैं और अनुभूति होता हैं, जैसे अभी-अभी आँखों के सामने हुआ हैं। बस’ यही भक्ति हैं, जो पुरातन होते हुए भी नव-नूतन हैं। जिसके स्वरूप को कोई भी बदल नहीं सकता, क्योंकि’ यह प्रकृति द्वारा नियंत्रित नहीं होता।
तभी तो, भक्ति-मार्ग में आचार्य-परंपरा हैं, जो युगों-युगों से चला आ रहा है और प्रकृति में अनंत बदलाव के बाद भी यह अपने उसी चैतन्य रूप में विद्यमान हैं। यह भक्ति-मार्ग उसी आचार्य परंपरा के द्वारा अनुशंसित हैं, पोषित हैं और समर्थित हैं।
यह वह भाव हैं, जो आज भी अवध में, वृंदावन में, जगन्नाथ जी में, द्वारिका में और ईश्वर के अनंत निवास स्थानों में आज भी प्राचीनता ही नवीनता का रुप लेता रहता हैं, जबकि’ इसके स्वरूप में बदलाव नहीं हो पाता। तभी तो’ आज भी अवध में भक्त राम लला को या तो बाल रूप में सेवा करते हैं, या तो उनके राजत्व को सहर्ष शिरोधार्य कर उनकी सेवा में लगे रहते हैं।
तभी तो’ आज भी वृंदावन के पुलिन पर भक्त हृदय गोपी के विरह भाव में डूब जाता हैं। उस बाल-गोविंद को अपने सखा, अपना स्वामी, अपना आराध्य बनाने के लिए विकल हो जाते हैं। आज भी वृंदावन की गलियों में भाव-बस श्री गोविंद माखन चुराने के लिए घूमते रहते हैं। आज भी वहां पर सखी भाव का रस प्रवाहित होता रहता हैं और जो ईश्वर भाव के रसिक हैं, उनके साथ रास-रचाने के लिए उद्धत बने रहते हैं। यही भाव हैं, यही भक्ति हैं, जो चैतन्य हैं, सर्वदा चैतन्य। स्वाभाविक हैं, जो सार्थक चैतन्य हैं, उसको समय-चक्र अपनी गति से प्रभावित नहीं कर सकता हैं, कभी उसके रूप को बदल नहीं सकता।
यह हैं भक्ति’ जो अपने उसी रूप से अभी तक विद्यमान हैं। यह सनातन हैं, जो ईश्वर के लिए हैं, ईश्वर का ही रूप हैं और उसको ही रिझाता हैं। यह सनातन हैं, जिसका प्रारंभ सृष्टि के साथ हुआ। यह मानव जीवन के लिए औषधि हैं, जो अपने मूल रूप में सर्वदा रहकर जीवन में होने बाले तमाम उन व्याधियों का नाश करता हैं और उसको जीवन पथ पर आगे बढ़ने के लिए अग्रसर करता हैं।