सुख-दुख दोनों ही संभावित हैं,
तुम व्यर्थ अहंकार न ढ़ोना सुख में,
फिर ऐसे ही विकल न होना दुख में,
जीवन के अंगन में समभाव से रहना,
इसके हलचल से होते प्रतिफल को सहना,
तुम साधक बन साधन के अनुरूप ही बहना।।
तुम यथोचित सदगुण हृदय बसाना,
चलने के क्रम में सहज भाव दिखलाना,
मन के अंतर में चैतन्य का दीप जलाना,
पथिक गुणों के ग्राहक बन धर्म निभाना,
जीवन के आंगन में तुम निर्मलता से रहना,
तुम साधक बन साधन के अनुरूप ही रहना।।
तुम बन जाना मानवता के सबल पुरोधा,
दुविधा के जंगल में बनकर लड़ना योद्धा,
स्नेह-द्वेष से परे तुम अपनी प्यारी कूटी बनाना,
जिसमें करुणा-दया का खंभा अडिग लगाना,
जो मिले चोट कहीं तो मौन हृदय हो सहना,
तुम साधक बन साधन के अनुरूप ही रहना।।
तुम बन जाना दीप-पुंज प्रखर प्रकाश फैलाना को,
जीवन के आंगन में नवल अरुणिमा सा खिलकर,
प्रिय सार्थक सदगुणों से सहृदय भाव से मिलकर,
प्रिय मानव, नहीं खो जाना ऐसे ही तिल-तिल कर,
तुम बनकर अनुयाई जीवन के इसका अमृत महना,
तुम साधक बन साधन के अनुरूप ही रहना।।
तुम ऐसे ही नहीं कभी चिंता को गले लगाना,
मन के अंतर में बुनकर स्वार्थ का ताना-बाना,
ऐसे भी परिणाम समर्थित जीवन का हैं खाना,
दोनों पलड़े संभावित, इससे आगे कुछ नहीं पाना,
ऐसे में आराध्य भाव जीवन के प्रति बन बातें कहना,
तुम साधक बन साधन के अनुरूप ही रहना।।