तुम पथ पर भटक न जाना,
सुनो प्रिय, तुम निश्चय ही रोक लेना,
अपने भावों के बनते घर्षण को,
बातों में बिना तथ्य आकर्षण को।।
तुम लेकर चलना अनुभूति का बल,
आगे चलते जाना बनकर निश्चल,
ढ़ूंढ़ ही लेना मन के प्रश्नों का हल,
हो पथिक, दिखना नहीं तुम निर्बल।।
तुम साहस का संबल लेकर चलना,
दिव्य ज्योत दीपक का लौ बन जलना,
चलना निराधार बातों को त्याग कहीं,
आए कहीं संशय जो, प्रिय संभलना।।
चलने के क्रम में भ्रम का जाल बने जो,
हो पथिक, प्रिय कहीं अटक न जाना,
रोक ही लेना बनते अनुराग के लहरों को,
व्यर्थ दिखते सुख-सुविधा के आकर्षण को।।
तुम पथ पर हो, अहंकार का भार न ढ़ोना,
जीवन के आंगन में ऐसे ही समय न खोना,
तुम रोक ही लेना अपने लचीले स्वभाव को,
बिना बात के ही मन में बनते हुए घर्षण को।।
जो सुविधा के अंकुर से ऐसे ही अभिमान जगे,
तुम हो केवल एक, समय केंद्र पर तुम्हें लगे,
सुनो प्रिय, रोक ही लेना स्वभावगत विकार,
बिना तथ्य के मन में जगते हुए आकर्षण को।।