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अनसुलझे जो बोल रहे हो वैण,
भाव-भंगिमा के बल, छिपा हुआ छल,
कोमलता स्नेह का ओढ़ आवरण,
मानकता से अलग, बनते हो निश्छल,
बात-बात पर फिर मटकाते हो नैन।।
फैलाते हो, शब्दों की गहरी जाल,
फिर तो, खेलते शतरंज की चाल,
भाव के रंगों से करते हो बहुत कमाल,
जीवन पथ पर करते हो जो छल-बल,
देखो' संभलो, कहीं बीत न जाए रैन।।
तेरा जो हो रहा स्वभाव का करवट,
बनाते हो स्वार्थ के ऊँचे-ऊँचे पर्वत,
अहं जो हो ऐसे हृदय बिठाए बरबस,
भ्रम का जीवन में बना रहे हो दलदल,
फिर भूल की शैया पर ले रहे हो चैन।।
अनसुलझे शब्दों की माला, फेरते हो,
आनंदित होते हो फिर बात छेड़ते हो,
मिले बस लाभ ही लाभ, पाल घेरते हो,
छायाचित्र बनाते, पल-पल भाव बदल,
पथ का नियम भूल फिर फैलाते हो डैन।।
तुम जो निराधार बनाते हो वृहत आकार,
नैतिक नियमों से अलग करने को व्यापार,
लाभुक बनने को जो उठाए हो मिथक भार,
इन तमाम बातों का जो भूल रहे हो प्रतिफल,
कुछ उधार के धैर्य लिये अटपटे बोल रहे हो वैण।।