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नितांत ही वृतांत का चित्रण करना अतिशय ही कठिन कार्य हैं। हां, आपके आस-पास क्या घटित हुआ था अथवा हो रहा हैं, उसको लिखित रुप देना इतना आसान तो नहीं। उसमें भी तब, जब सभी चीजों का अचानक और तेजी के साथ बदलाव हो रहा हो। वे बदलाव, जो या तो सकारात्मक होते हैं, या तो नकारात्मक और ये अपने स्वभाव के अनुकूल ही आप पर, हम पर और समाज पर व्यापक असर डालते हैं।

समाज, जो कि” हम और आप से बना हैं और परस्पर विविध प्रकार के विनिमय करने के लिए अनुकूल परिस्थिति का निर्माण करता हैं। तभी तो’ इसकी छत्रछाया में मानव जीवन पनपता हैं। विषम परिस्थितियों से टकराने के लिए धैर्य और पुरुषार्थ दोनों ही पाता हैं और एक सभ्य जीवन, उत्थान के लिए प्रयास और हित-अनहित की बातों से पूर्णरूपेण अवगत होता हैं।

हां, यह समाज ही तो हैं, जो प्रेरणा स्रोत का भंडार हैं। ऐसे में इस बात को दावे के साथ कहा जा सकता हैं कि” व्यक्ति, परिवार अथवा राष्ट्र के स्वस्थ विकास के लिए एक स्वस्थ समाज की कितनी आवश्यकता हैं। हां, वह समाज ही तो हैं, जो नैतिक मूल्यों का अनुमोदन करता हैं, इसको पालन करने के लिए व्यक्ति, परिवार अथवा राष्ट्र को बाध्य करता हैं। उन रेखांकित सीमाओं का सटीक निर्माण करता हैं, जिसके दायरे में बंधकर जीवन नव-पल्लवित होने लगता हैं।

परंतु…आज कुछ उलट-फेर सा हो गया हैं। कुछ तो ऐसा घटित होने लगा हैं, जिसका प्रभाव हलाहल विष से भी अति तीव्र हैं। आज जो तीव्र गति से बदलाव हो रहा हैं न, उसने मानव के लिए निर्धारित तमाम उन नैतिक मूल्यों को निगलने का प्रयास कर रहा हैं। जिस स्वस्थ समाज, परिवार, व्यक्ति और राष्ट्र की परिकल्पना की गई थी और जो सदियों से चला आ रहा था, उस संघिय आधारभूत ढाँचे को ध्वस्त कर के रख दिया हैं और आज का विषय “वृतांत” भी इसी के इर्दगिर्द घूमता हैं।

मतलब साफ हैं, आज समाज में सहृदयता की जगह वैमनस्यता का प्रभाव बढ़ा हैं और ऐसा इसलिए हुआ हैं कि” आज व्यक्ति स्व-हित की साधना में लग गया हैं। वह चाहता हैं कि” चाहे जैसे भी हो, येन-केन प्रकारेण उसके कदम सफलता के दरवाजे तक पहुंच जाए। वह चाहता हैं कि” चाहे जो भी करना पड़े, लेकिन’ दौलत का विशाल अंबार उसके आस-पास लग जाए, जिससे कि” वह अपने मन की अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति कर सके। बस’ यही इच्छा, यही स्वार्थ समाज में संघर्ष को जन्म देता हैं।

परिणाम” ईर्ष्या रूपी दावानल का श्रीगणेश होता हैं, जो कि” हो चुका हैं और उस विकट परिस्थिति में भी पहुंच गया हैं, जहां से लगता हैं, सब कुछ जलकर खाक हो जाएगा। हां, कुछ भी नहीं बचेगा, जो समाज के लिए, उसकी एकता- अखंडता के लिए लाभकारी हो और उसे अपने बाँहूपाश में जकड़ कर रख सके। बस’ यह “वृतांत” उन्हीं बातों का हैं, क्योंकि’ आज जो हो रहा हैं, वह कहीं से भी हितकारी और अनुकूल नहीं हैं।

इस कारण से अब सामाजिक आयोजन का दायरा कुछ हद तक सिमट कर रह गया हैं और कुछ विशेष प्रकार के आयोजन का प्रयास भी किया जाता हैं, तो वहां पर सिक्कों के खनक” का बाहुल्य हैं। हां, वहां भी वर्चस्व की लड़ाई हैं, फोटो और कवर में आने का उद्देश्य हैं और न्यूज में छाए रहने की मंशा हैं। वहां भी जमकर स्वार्थ की रेवड़ी लूटी जाती हैं और सहयोग अथवा चंदे का नाम देकर धन भी बनाया जाता हैं। जो कि” सत्य हैं और आज के स्थिति में इस दूषण से बचना मुश्किल ही नहीं असंभव सा हो गया हैं।

साथ ही, ध्यान देने योग्य बात हैं कि” समाज में निजी स्तर पर होने बाले आयोजन में भी वह रस, वह सौहार्द, वह प्रेम और समरसता का अभाव हो गया हैं और उसकी जगह दिखावे ने ले लिया हैं। आज, जो कि” गांव या शहर, कहीं भी शादी-ब्याह, श्राद्ध, भंडारा-कीर्तन अथवा तो सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन करना एक स्टेट सिंबल बन गया हैं।

बस’ इन होने बाले तमाम तरह के आयोजन में आयोजन करने बाले का उद्देश्य रहता हैं कि” किसी भी तरह से वो सब से अलग-सब से हटकर दिखे। समाज में उसका नाम, जो कि” पहले भी था और पहले भी लोग उसे सम्मान देते थे, लेकिन अब, इसके बाद स्वर्णाक्षर में अंकित हो जाए। वह जिधर से भी गर्व से सीना तान कर चले, लोग उसके सजदे में झुक जाए।

यह जो चलन कुछ वर्षों में समाज के दामन में पनपा हैं न, वह धीरे-धीरे प्रचलन का रुप लेता जा रहा हैं। यह वृतांत भी तो इसी बात के लिए हैं कि” आज जो हो रहा हैं, बदल रहा है, वह विकृत रूप में हो रहा हैं। जो कि” न तो व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के हित में हैं और न ही प्रकृति के अनुकूल। हां, अभी समय हैं कि” इस बात पर व्यापक मंथन किया जाए, अन्यथा तो कुछ भी श्रेष्ठ नहीं बचेगा और रह जाएगा मात्र “वृतांत”।

फिर कभी...

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