विवस्वान हो रहे थे उद्धत धरा से पीठ दिखाने को,
गहन तिमिर के बाद फिर एक नया सवेरा लाने को।

निःशब्द सा था रमणीक अरण्य,पाँडव की पर्णकुटी सुरम्य,
पर नीरवता थी एक छाई,ज्यों संग कोई कम्पन लाई।

सबके मुख थे क्लिष्ट मलीन,ज्यों हाँथ पसारे कोई दीन,
प्रश्नचिन्ह था हृदय पे रखा,आस की लौ हो रही थी क्षीण।

दूर शिला पे बैठी थी जो तेजपुंज एक नारी थी
कुछ क्षण पूर्व घटी घटना से संज्ञाशून्य मतिहारी थी।

बिन सोचे समझे एक माँ ने कैसा ये निर्णय था लिया
पंचामृत के जैसे एक नारी को था बाँट दिया।

तभी उदित होते से चन्द्र से युगपुरुष अवतरित हुए
नारी के मुखमंडल पर कितने प्रश्न चिन्हित थे हुए।

हे केशव मैं अग्नि से जन्मी अग्निसुता पांचाली हूँ
हे सखा मुझे इतना तो बता किस पथ पे जाने वाली हूँ।

कैसे बाटूँगी मैं खुद को इन पाँच महारथियों के बीच
कैसे धारण करूँगी मैं अपने उर में इन सबके बीज।

निशा के चार पहर के जैसे क्या मैं बाँटी जाऊँगी
क्या परम् प्रिय अर्जुन का सानिध्य मैं पा पाऊँगी।

लाँछन लगेंगे कैसे मुझ पर,कैसा अलंकरण होगा
क्या इस जीवन युद्ध में मेरा,कोई सारथी भी होगा।

बस इतना ही तो वर मांगा था शिवशंकर से मैंने प्रभु
पाणिग्रहण जिससे हो मेरा वो पँचगुणी हो शिवशम्भु।

सुनकर विहसे पार्थसारथी, बोले हे श्यामा हे री सखी
तज चिंता के बादल को तू हे कृष्णा हे सूर्यमुखी।

सुन गूढ़ अर्थ तू जन्म का अपने जिससे जन्म ये व्यर्थ न हो
नव निर्माण के हेतु जग के,त्याग ये तेरा व्यर्थ न हो।

साधारण तू नारी नहीं,
देवांश है तू बेचारी नहीं।

तू जन्मी है उस पावक से जिसमें तपके सत हो पावन
जिसमें ये नश्वर देह जले पर अमर हो कुंदन बन सत्कर्म।

तू है हर लाँछन से ऊपर,उस पापनाशिनी गंगा सी
है उसकी बहती धारा सा तेरे आँचल का विस्तार सखी।

ना छोर कोई पा पाएगा, तेरे आँचल के विस्तार का
इसे जान तू मेरा उत्तरीय जिसे खींच न कोई पायेगा।

है मेरा प्रण तुझसे हे सखी वो खण्ड खण्ड हो जाएगा
मतिभ्रष्ट हो कामांध कोई जो इसको हाँथ लगाएगा।

सुन नारायण का आश्वासन ,श्यामा के अधर थे कांप उठे
पद्मकमल से नयनों में कितने ही सूर्य थे जाग उठे।

शेष साक्षी है ये जग उस पीड़ा का उस घटना का
जिसकी नींव पे जन्म हुआ महासमर महाभारत का।

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पूर्णतयः स्वरचित एवं मौलिक

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