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सुनो ओ तपस्वी...
तुम्हें कोटिशः प्रणाम।
तुम्हारे इस अकूत ब्रम्हज्ञान का
करती हूँ मैं सम्मान।
किन्तु...
कहाँ था ये ज्ञान
जब ली थी सप्तपदी?
क्यूँ बह गए मेरे नेह में
ज्यों मैं थी कोई बहती नदी?
क्यूँ उलझ गए मेरी वेणी में
क्या मैंने था कहा?
या फिर...
तुम्हारे वैरागी मन पर,
तृष्णा का ताप हावी था हो गया।
कदाचित...
तुम्हारे तथाकथित पुरुषत्व के भीतर
बहुत भीतर कहीं गहरे में,
आकांक्षा थी एक रूपवती नारी की।
सच बोलना...
क्या समागम के उन पलों में भी
वैराग्य तुमपे भारी था ?
या...
संतुष्टि के उस चरम पे तुम्हारा
पुरुषत्व मिथ्याचारी था ?
क्यूँ ये ज्ञान परम तुम्हारा,
इन्द्रिय सुख के बाद ही जागा?
क्यूँ मुझे भोगने के पश्चात ही
तोड़ा मुझसे नेह का धागा ?
क्यूँ ये वैराग्य...
बाट जोहता रहा,
मेरे उर में तुम्हारे पुष्प के
पल्लवित होने की?
क्यूँ ये राह रहा देखता
रात्रि होने की?
तुम प्रातः भी जा सकते थे
और...
पहले भी जा सकते थे।
क्या आवश्यक था हर इन्द्रिय का
पूर्णतयः सन्तुष्ट होना ?
तुम पहले भी तो ए सन्यासी!
जितेंद्रिय हो सकते थे।
एक तुम्हारा अनुसरण कर
और निर्वाण के मोह में,
यशोधराएँ थी तजी गयीं
कितनी ही निर्मोह में।
न न...
कोई आक्षेप नहीं लगा रही
मैं तुम्हारे बुद्धत्व पे,
ये तो मात्र एक जिज्ञासा है,
बुद्धत्व प्राप्त पुरुषत्व से।
मन में न कोई द्वेष है
पर...
प्रश्न अभी भी शेष है।
उन यशोधराओं का दोषी कौन
उनके हित में क्यों जग है मौन??
जो मोक्ष प्राप्ति के पथ पर
इंद्रिय सुखों को भोग कर,
ब्रम्हचर्य की ओर अग्रसर,
अपने स्वामी की अपूर्णता को
अपनी छद्म मुस्कान से
पूर्णतः प्रदान करती हैं
और...
परीकथाओं सरीखी
अपने जीवन की झाँकी दिखा,
उनके लिए निर्वाण का पथ प्रदर्शित करती हैं।

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