Image by Lars Nissen from Pixabay 

रोज़ सवेरे से शाम तक
सुनता हूँ स्वर
शोर भी।
जागते ही चाहता हूँ सुनना आज़ाद चिड़ियों की चहचहाहट,
लेकिन सुनता हूँ नारा - आज़ादी चाहिए चिड़ियों को,
किसी न किसी टीवी चैनल पर - रेडियो पर।
चाहता हूँ सुनना संगीत, जो जोड़े ईश्वर से,
लेकिन सुनता हूँ पूजा और अजान की प्रतिद्वंदिता।
चलो छोडो भी, ईश्वर की परवाह यहां कर कौन रहा?
सुनना चाहता हूँ अपने परिवार की हंसी,
लेकिन सुनता हूँ शहीदों की पत्नियों की चूड़ियाँ टूटने का स्वर।
इसे कैसे यूं ही जाने दूँ?
सुनना चाहता हूँ अपनी गाड़ी में बैठ खुद ही की सीटी,
लेकिन सुनता हूँ मुझसे आगे निकलने की होड़ का हॉर्न।
जाओ भाई निकलो आगे - ध्वनि प्रदूषण।
सुनना चाहता हूँ अपने दिमाग की रचनात्मकता,
लेकिन सुनता हूँ, इसे आगे मत बढ़ने देना।
कमाल की धक्का-नीति है ना!
सुनना चाहता हूँ अपने दिल के भाव,
लेकिन सुनता हूँ थकती धड़कन का स्वर,
आखिर धूल-धुंआ श्वास के जरिये जा रहा है।
सुनना चाहता हूँ अपने मन की कविता,
लेकिन सुनता हूँ बेरोजगारों का काम है कविता लिखना।
यह कहते हैं काव्य-गोष्ठियों के मुख्य अतिथि ही - अकेले में।
सुन रहा हूँ यह सब, क्योंकि आज़ादी है अभिव्यक्ति की।
काश! होती आज़ादी मौन की भी
कोई तोड़ ना पाता जिसे।

.    .    .

Discus