अब वह कहीं नहीं थी। मेरे पिता कहते थे जो कहीं नहीं होता कभी-कभी वो हर जगह होता है। सिगरेट के धुएँ को अपने फेंफड़ों में ही रोक देने की कोशिश करते हुए मुझे पिताजी की यह बात याद आते ही खांसी आ गयी जिससे धुआं अंदर से बाहर आकर हवाओं में घुलते हुए गायब होने लगा और मैं उल्टे यह सोचने लगा किं धुएँ की तरह ही हवाओं में घुला इंसान… कहीं नहीं होता।

एक चित्रकार होने के नाते मैं भावुक ज़रूर हूँ लेकिन उसे दो आदमियों से प्रेम करते और उन्हें छोड़ देने के बाद भी मुस्कुराते देख उसकी इस निष्ठुरता को उसके होने तक मैं भी जीता रहा। अपने पहले प्यार को वह केंडल लव कहती थी। शाम मोमबत्ती रोशन होने के बाद वह आता था और सवेरे की मोमबत्ती बुझने से पहले तक ही रुकता था। मैं उन दिनों पन्द्रह साल का था। माली हालत ठीक नहीं थी सो उसके और दूसरे घरों में अल सुबह फूल बेचने जाता था। एक दिन फूल लेते हुए उसने मुझसे पूछा था कि, "दिन में तुम्हारे ये फूल मुरझाये और रात में खिले हुए क्यों लगते हैं?" मेरे पास कोई जवाब नहीं था। हालाँकि अपने केंडल लव को विदा करते वक्त अनगिनत बार फूलों का मुरझाना मुझे उसके चेहरे पर दिखाई देता था। 

महीने बीतते रहे, एक दिन मैंने उसे उसके केंडल लव के मुंह पर पूरी ताकत से एक मोमबत्ती मारते हुए देखा। उस दिन समझ में आया कि कुछ मोमबत्तियां ऐसी भी होती हैं जो मुंहतोड़ जवाब देने में खुद तो टूट जाती हैं लेकिन पिघलती नहीं। मेरे अंदर के चित्रकार को जन्म देने वाली भी यही मोमबत्ती थी। उस दिन ज़िंदगी का सबसे पहला स्केच बना था - सफेद मोम से बनी टूटी हुई रंगहीन मोमबत्ती। रंगीन फूल बेचने वाला मैं रंगहीन स्केच बनाने लगा। उसकी बात करें तो कुछ ही दिनों में मैंने देखा कि उसकी मुस्कुराहट लौट आई और उसने मोमबत्तियों की जगह चिराग जलाने शुरू कर दिए।

उसका दूसरा प्यार पहले प्यार के तीन सालों बाद आया। तब तक मेरा पेशा भी तोड़े हुए फूलों के निश्चित रंगों से ऊपर उठ कर कैनवास पर अनदेखे रंगों के नकाब उतारने तक पहुँच चुका था। मेरे चार चित्र उसने खरीदे भी थे। खरीदे क्या थे! मैनें जब-जब भी फूलों के चित्र बनाये, उसे दे दिए। बदले में उसने जितना भी धन दिया सिर झुका कर ले लिया। वह शादी के लिए दौड़ लगांने को नासमझी समझती थी, लेकिन उसका दूसरा प्यार एक धावक ही था। वह प्यार होने के कुछ सालों बाद का वह दिन मुझे अच्छी तरह याद है जब उसने मुझे अपने गले से सोने का हार उतार कर दिया और कहा कि एक ऐसा चित्र बनाऊं जिसमें वह धावक दौड़ कर कहीं और ना जा सके। लेकिन मेरे पास ऐसी कोई कल्पना नहीं थी, मैंने उसका हार उसे लौटा दिया और वह पूरी रात मेरे कंधे पर सिर रखकर सिसकती रही। अगले दिन सवेरे उसने मुझे खामोशी लेकिन फिर उसी चिर-परिचित मुस्कराहट के साथ विदा किया।

उस धावक के प्रति उसकी यह निष्ठुर मुस्कराहट मुझे बहुत अच्छी लगी। उसके बाद मैं नियमित उसके घर जाता रहा, हम बातें करते लेकिन मैं कभी उससे अपने आपको नहीं कह पाया। उसकी निष्ठुरता से डर भी लगता था। कल शाम पता चला कि मकान की छत से गिरने से उसकी मौत हो गयी और आज उसी मकान में सिगरेट के कश पे कश लेते हुए मैं उसकी तस्वीरों को देख रहा हूँ।

एक चित्र मेरे हाथ लगा, जिसे मैंने ही अपनी कल्पना में उसे ग्रामीण चुनरी पहना कर बनाया था। मैंने उस पर लगी मिट्टी साफ की तो पीछे की फ्रेम की तरफ उसकी लिखावट उभरने लगी। उत्सुकता सी हुई और मिट्टी हटा कर मैंने पढ़ा, उसने लिखा था,

“काश! मेरी रंग उतरती चुनरी में तुम रंग भर सकते! कैसे चित्रकार हो तुम? तुम्हें रंग भरना भी नहीं आता।“

और मैंने सिर उठाया तो स्पष्ट देखा कि वह मेरे सामने खड़ी थी - एक रंगहीन बिना मिट्टी की आत्मा।

और मेरे होंठों पर वही मुस्कुराहट तैरने लगी, जो आज उसके पारदर्शी होंठों पर नहीं थी।

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