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क्या गति हुई कल-पुरज़ों समान
और जीवन दोहराता चक्र महान?
क्या खो गई स्मृति की कमान
और जीवन लगे वृहत चट्टान?

क्या मतिगति हुई गतिहीन
और वर्तमान अस्तित्वहीन ?
तो सुनो अंतर्मन की पुकार,
तुम इस कविता की झंकार।


चलो छोड़ चलें हम शून्यता,
हो सृजन, उपजे कमनीयता
विचारों की, स्वभावों की
व लुप्त-सुप्त अनुभावों की।

चलो छोड़ चलें हम स्थूलता,
करें सृजन, मिटे विद्रूपता
अँधियारों की, किनारों की
व गुप्त-सुप्त अधिकारों की।

चलो छोड़ चलें हम पूर्णता
हो रंजन रचें सृजनशीलता,
ढूँढें कुंजन कुंजी का तिलिस्म,
खोजें हर रंजक किस्म का इल्म।

चलो छोड़ चलें हम हीनता
हो लीन तजें हर जीर्णता,
बन तरंग तजें तन्हाइयाँ,
बुनें स्वप्न, नपें गहराइयाँ।

चलो छोड़ चलें अब भोर भयी,
बुलाए तुम्हें एक रोमांचक घड़ी,
चलो छोड़ चलें अब देर नहीं,
संग कुंजी है और स्थान वही।

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