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क्या जानूँ, क्या ना जानूँ?
क्या मानूँ, क्या ना मानूँ?
जो देखूंँ क्या वही सोचूँ ?
या जो सोचूँ मैं वही देखूंँ?

उलझन में हूँ या खुद उलझन?
नीरस मैं हूँ या जग नीरस?
बंधन में हूँ या खुद बंधन?
नवरस मैं हूँ या जग नवरस?

क्या सुनूँ, क्या ना सुनूँ?
क्या कहूँ, क्या ना कहूँ?
जो लिखूँ क्या वही पढ़ूँ?
या जो पढ़ूँ मैं वही लिखूंँ?

इस असमंजस में हो क्या तुम भी?
क्या तलाश है तुम्हें भी नएपन की ?
क्या पचपन में भी है बचपन?
या बचपन ही अब है पचपन?

तो वह जानों जो है अनजान,
वह मानो जिसका न अनुमान,
सोचो वह भी जो न दिख सके,
देखो वह भी कोई न सोच सके।

उलझन ही दे सुलझन की राह,
नीरस में ही भरती रस की चाह,
बंधन को तोड़, हो बंधनमुक्त,
नवरस हूँ मैं, नवरस हो तुम।

तो वह सुनो जो है अनसुना,
वह कहो जो रहा अनकहा,
पढ़ो वह भी जो न है लिखा,
लिखो वह भी जो न है पढ़ा।

है उम्र बस संख्या का भाव,
होता जिसमें अनुभव का चाव।
तजुर्बा नहीं अंक का मोहताज,
न सोचो अब कुछ न है खास।

रंजित है दिन रंजित है साँझ,
वंचित नहीं मंडित है पाँख।
खंडित करो तुम अपनी गांँठ,
कंपित करो अपना स्थिरांक।

सम्मुख किरण का है कर्षण,
वरण करो तुम यह घर्षण।
तरण करो तरणि है समक्ष,
रमण करो, यह अति वलक्ष।

तुम जड़ नहीं, तुम हो चेतन,
तज निष्क्रियता करो यतन।
इस स्थान से तुम हो परिचित,
तजो विलंब, ढूंँढ़ो यत्किंचित।

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