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भाव हैं मृग- मरीचिका मेरे जो हाथ न कभी आते हैं,
ये संग मेरे रहते हरदम पर समझ में किसके आते हैं?
नित्य करूँ मैं इनसे मिलन ये स्याह रातों को रंजते हैं,
दिल के तूफान में डूबूँ जब ये बन लहर संग उफनते हैं।
इस रंग बदलती दुनिया में अपने भी रंग बदलते हैं,
एहसास भले ही बाकी हों पर सब कहने से डरते हैं,
किसको कहूँ मैं दिल की व्यथा कोई अपना न है मुझको मिला,
खुशियों की किरण में है अंधेरा पर सबको दिखे है सवेरा मेरा।
अंतर्मन है अब युद्धभूमि, चल रहा है जिसमें एक संग्राम,
एक तरफ है उम्मीद मेरी, दूजी तरफ है पूर्ण विराम,
जि़द है कि खुद को मैं न छलूँ, जग से अब मैं कुछ न कहूँ
छलनी में पानी कैसे भरूँ? मन की तलाश से कैसे मुड़ूँ?
अंतःकरण में अग्नि दहकती है, बाहर बर्फ चमकती है,
पिघलती हूँ मैं जब भी भीतर झूठे वादे जमा जाते हैं,
ख़ुदग़र्ज़ हितैषी बनते हैं, अपनाते और ठुकराते हैं,
लुभाते हैं पहले बातों से फिर नाटक कर चले जाते हैं।
सब व्यस्त हैं अपने कर्मों में पर धर्म भी है एक कर्म बड़ा,
दुनिया ने बदला है मुझको कि वन भी लगे है वीरान खड़ा,
वीरान है वीथियाँ, वीरान है दिल, न जाने कहाँ अपनी मंज़िल
बिन बोले है बेबस बिखरा, टूटा पर बाहर से निखरा।
रिक्त रातें यूँ रुलाती हैं कि भीड़ में भी अकेली हूँ,
विश्वास की डोरी भले टूटे सन्नाटे की मैं सहेली हूँ,
खुद के चेहरे बदलें हर बार कहें मुझको दोगली वो यार
एक मुँह मीठा दूजा विषैला, मुखौटों के पीछे है छिपा चेहरा ।
नम नैनों की स्याही से भी, शब्द कागज़ पर नहीं आते हैं,
सीने में सुलगती बात अनकही रातों में राख बन जाती है,
जब लिखकर बयाँ न हो पाए राख में भी उम्मीद जल जाती है,
चिंगारी भी अभी काफी है, जीने की आस अभी बाकी है।

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