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आरोह-अवरोह से क्यों है डरना,
जब बना सको इन्हें तुम अपना ?
क्या भूल गई अपने मिज़ाज़ों को ?
प्रत्यास्कंदन के उन भावों को ?
जब तुम डर को डराती थी,
गिरने से कभी न घबराती थी,
हंँसकर खड़ी हो जाती थी,
या हँसाकर खड़ा कर जाती थी,
शब्द बाणों को मधुर बनाती थी,
नीरस को रसपान कराती थी,
अभद्र को दर्पण दिखाती थी,
ईर्ष्या में भी इच्छा जगाती थी,
कि आरंभ करे वह भी कुछ अपना,
अच्छा नहीं हर पल औरों से जलना।

आरोह-अवरोह से क्यों है डरना,
जब बना सको इन्हें तुम अपना ?
क्या भूल गई अपने अल्फाज़ों को?
रोमांच के उन अहसासों को?
जब बन नीर तुम बह चली,
जब बन पवन तुम सह चली,
हर बाधा, हर एक गतिरोध,
हर वादा, हर एक प्रतिशोध।
जब बन अटल, किया हर विरोध।
होकर प्रबल, किया सब सुबोध।
न क्रोध किया, बस शोध किया,
अंतर्विरोध से आत्मबोध किया।
अमृत चखा, विषपान किया,
लख सत्य, न विश्राम किया।
बस श्रम किया, हरदम किया,
लख सत्य, न विश्राम किया।

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