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आयी कारी रैना, हुए कारे ख्वाब,

अब हैं प्यासी नैना, लिए नमी का सैलाब।

दिखी तुम्हें जो बूँद थी,
अंतर मेरे परिपूर्ण थी।
कभी उछलती, कभी कूदती,
कभी संग मेरे वह झूमती,
कभी छलकती, कभी बहकती,
कभी संग मेरे वह चहकती।

आज वह संग नहीं, जो कल थी।
कल वह संग नहीं, जो आज है।
आयी कारी रैना, हुए कारे ख्वाब,
अब हैं प्यासी नैना, लिए नमी का सैलाब।

थक गयी हूँ इन आगाज़ों से,
लोगों के नए मिज़ाज़ों से
दुनिया के रीति-रिवाज़ों से,
और झूठे अल्फाज़ों से।

अभी अंत है, आगाज़ नहीं,
नए दौर की शुरुआत नहीं।
कैसे उठूँ, कैसे चुनूँ?
मैं बन मृदा बस उड़ चलूँ।
नित वही दिन, नित वही राह,
थोपें सब मुझपर अपनी चाह।

कुछ पंक्तियाँ हृदय को छू जाती हैं,
कुछ हृदय की गहराइयों में बस जाती हैं।
कुछ चिट्ठियाँ संदूक में खो जाती हैं,
कुछ आँखों के सामने रोशन हो जाती हैं।
कुछ पल अतीत में खो जाते हैं,
कुछ अंतर्मन में ठहर जाते हैं।
कुछ स्वप्न नैनों में आ जाते हैं,
कुछ आकर बस कैद हो जाते हैं।

मंज़िलें न कोई मुझे अपनी मिली।
रंजिशों से घिरी रही मेरी घड़ी।
गर्दिश में है तारे मेरे यहाँ,
अब न रहना है मुझे इस जहाँ।
जहाँ मौलिकता को न मिले पहचान,
जहाँ नवीनता का कोई न करे मान,
जहाँ मिलती है प्रतिपल एक ठुकार,
जहाँ बिकती है प्रतिपल एक नकार,
जहाँ मिथ्या बुनती रहे अपना जाल,
जहाँ अनसुनी हो, राही की हर पुकार,
जहाँ चोरों की चोरी न पकड़ी जाती,
जहाँ वफादारी अपनी कीमत चुकाती,
जहाँ विष करता रहे अमृतपान,

जहाँ पीयूष को करना पड़े विषपान! 

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