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इन कंटकाकीर्ण वीथियों में होता हरदम पदक्षेप है,
वितंडावाद से क्या डरना जब लगते नित्य आक्षेप हैं।
अवरोधों की श्रृंखला है परसत्ता की अवनि में,
देती हूँ मैं सदा परीक्षा रूढ़ियों की अग्नि में।

कोमलता के आँचल में कमज़ोरी छिपा लेती हूँ,
शालीनता की शोभा में वाणी को दबा लेती हूँ।
अश्कों को मैं अपने मोती बना लेती हूँ,
जग से मिले नील को श्रृंगार बना लेती हूँ।

नेतृत्व की मशाल को थामे हूँ मैं हाथ में,
जीवन की हर चुनौती को अवसर बना लेती हूँ।
नज़र भले ही न आएं मेरे असंख्य रूप तुम्हें,
नवोन्मेष के संग मैं परियोजना बना लेती हूँ।

आरक्षण प्रदत्त शक्ति नहीं, मैं प्रज्ञा की अधिष्ठात्री हूँ,
बेटी, बहन, भाभी, माँ और बहुमुखी अभिनेत्री हूँ।
राजनीति के गलियारों में कूटनीति के दीप जलाती हूँ,
अर्थ के चिराग में अन्वेषण की वर्तिका लगाती हूँ,
शिक्षा के मंदिरों में मैं शिक्षिका बनकर जाती हूँ,
परिषद् कक्ष में हर पल नीतियों का नाद सुनाती हूँ -
संघर्ष व लिंगभेद नहीं युग का संवाद सुनाती हूँ,
अनसुनी रही आवाज़ों को मैं जग से मिलवाती हूँ।

संस्कृति-संरक्षिका मैं हूँ, समता की सेविका मैं हूँ,
पथ प्रदर्शिका मैं हूँ, पारदर्शिता मैं हूँ,
राष्ट्रनिर्मात्री मैं हूँ, स्नेहिल सुरभि जन्मदात्री मैं हूँ,
इस जग का आधा अंग मैं हूँ, जीवन का हर रंग मैं हूँ,
संकल्प मैं हूँ, सशक्त मैं हूँ, संकट की घड़ी में संबल मैं हूँ,
श्रमिका व लेखिका मैं हूँ, हर मर्ज़ को दूर करे वो चिकित्सिका मैं हूँ।

चाँद सा रोशन चेहरा मैं हूँ जिस पर सूरज का पहरा है,
खुशियों की किरण का वो अंधेरा मैं हूँ दिखता जिसका सिर्फ सवेरा है।
आदर्शों की आभा में मैं न्याय का प्रकाश हूँ,
संवेदनशीलता से सिंचित में संगठन का कैलाश हूँ।
यह कथा नहीं किसी अबला की, यह नेतृत्व का गौरवगान है,
विकसित भारत की ओर बढ़ते हुए कदमों का प्रमाण है।
नामों की कमी नहीं नेतृत्व में जो उनकी मैं सूची बनाऊं,
पर क्षेत्र अभी भी शेष हैं जिनमें मैं अपनी पहचान बनाऊं।

नाविका सागर परिक्रमा हो, विश्व कप या सिंदूरी मिशन,
नारी ने अपने नेतृत्व में महकाया है हर गुलशन।
इस काल की परम अभ्यर्थना है कि हम सब अब आगे आएं ,
दया नहीं अपेक्षित हमसे बस उपेक्षा का न भाव दिखाएं।
सुरक्षित समता का मंच प्रदान करें, अनेक शिखर अभी बाकी हैं,
किंवदंतियों में सत्य खोजें, नारी नेतृत्व भी प्रगति की झाँकी है।

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