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क्या हुआ है समय कभी प्रतिकूल?
या कोई घड़ी कभी अनुकूल?
क्या जाना कभी जीवन का मूल?
या ताप में झुलस गया वह फूल?
माना कि हुए तुम खुद से दूर,
चाहत की चाह में इतने मजबूर।
पर किसने कहा कि यही एक राह
जिस पर चलना ही है बस एक चाह?
कल आया था एक परिणाम
जिसकी परिणति नहीं अवसान।
अब है समय कि दो विराम
और सुनो अंतर्मन का आह्वान
एक सूची है, न कि तूफान,
जो है थकान, न बने मसान,
हो मन हैरान, पर न वीरान,
है सबका यहाँ अपना आसमान।
क्यों वर्षा में ही चढ़े फ़ितूर?
व दिखे मयूर का तभी नूर?
क्यों वसंत में ही खिलें फूल?
व मिलें शरद में अनंत शूल?
सबका यहाँ अपना समयचक्र
जिसमें जीता है जीवनचक्र
न कभी क्रूर, न कभी चूर।
जीता है लेकर एक गुरुर
सभी को मिले जीवन का मूल
कि चक्र हूँ, चलना मेरा धर्म
विस्मृत न मुझसे किसी का कर्म।
हे मनुष्य! तू बस कर प्रयास,
अपनी रुचि से रख एक आस,
सूची जीवन में होंगी अनेक,
रुचि हो जीवन में बस नेक।