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जिन्दगी के रंग तो कई है। लेकिन जिन्दगी का सबसे खूबसूरत रंग प्रेम है। जब भी प्रेम शब्द का आव्हान होता है। तो हमें सबसे पहले आँखों में उस शख्स की छवि दिखाई पड़ती है जिस पर हमारा अटूट प्रेम होता है।

मगर प्रेम का तात्पर्य यह कदापि नही की हमारा प्रेम केवल एक प्रेमी के प्रति ही हो। प्रेम तो जल की भाँति होता है जो एक पौधें को एक विशाल वृक्ष में बदल देता है अगर पौधें को जल ना मिलें तो वह ना हरा होगा और ना ही उसका कद बढ़ेगा। उसी प्रकार रिश्तों में भी प्रेम का होना अति आवश्यक है। अटूट प्रेम ही एक अटूट नाता कायम करता है। जिन रिश्तों में प्रेम भावना नही होती उन रिश्तों की उम्र बहुत कम होती है। तथा वह संबंध पतझड़ समान हो जाते है।

आजकल की जनरेशन में प्रेम बस एक शब्द बन कर रह गया है। प्रेम तो सभी करते है लेकिन प्रेम का अर्थ कोई नही जानता। क्योंकि की आज की जनरेशन का प्रेम, प्रेम नहीं आकर्षण है, मोह है।

प्रेम और मोह में जमीन आसमान का अंतर है।

 जहां क्रोध होता है वहां प्रेम नही होता है। क्रोध वह आग है जो दूसरों को बाद में सबसे पहले खुद को नष्ट कर देता है। और जो खुद को क्रोध में नष्ट कर दे वो व्यक्ति भला प्रेम को कब तक निभाएंगा। अर्थात प्रेम में क्रोध चाहिए लेकिन क्रोध में प्रेम नही। जब तक हमारे भीतर सभी विकारों का ढेरा भरा पढा़ है तब तक हम प्रेम को समझ नही पाएंगे। भय, क्रोध, अहंकार, मोह, ईष्या, घृणा, संदेह आदि विकारों ने हमें घेरा है तब तक हम प्रेम को जान नही पाएंगे समझ नही पाएंगे।

 जिस प्रकार... किसी भी "वस्तु" को बांधने के लिए आवश्यकता होती है। एक डोर कि... और वह "डोर"बनती है, "रूही" के छोटे छोटे "धागों" से।
 उसी प्रकार... किसी भी " संबंध" को बांधने के लिए आवश्यकता होती है। एक "विश्वास" कि "डोर" कि... और वह "डोर" बनती है, "सच" के छोटे छोटे "धागों"से...

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