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वो ठंडी सी शाम थी
मेहेक्ति मिट्टी की खुशबू आम थी
वो पानी मे पिचक-पिचक कर रहे जूते थे
सड़क के गड्ढे मे कागज की नाव चलारहे मासूम से बच्चे थे
वो बचपन की बारिश के दिन अच्छे थे
ना दुनिया की कोई फ़िक्र थी,
ना ही भीगने का कोई ग़म
उल्टा छत पे भीगने के लिए नंगे पाव दौरा करते थे हम
जब खेल कूद के कीचड़ मे लटपत नीचे आते थे
बीमार तो होते ही थे ऊपर से माँ की डांट अलग खाते थे
पता जब पड़ता था की बारिश के कारण स्कूल की छुट्टी है कल
दिल मचलता था ओर मेंढक उछलते थे
कितनी छोटी-छोटी खुशियाँ थी
मामूली सी दिक्कतों का छोटा सा हल था
जो आसमान से बरसता जल था
वो बारिश उन बचपन के दिनों की एक याद बन गई
ढूँढूली सी दिखती वो शाम अब एक ख्याल बन गई
वक़्त के पहिए का कोई क़याम ही नहीं
वो समय था जब मशहूर थी बारिश मोहब्बतों के किस्सों के हवालों से
अब बस एक ना खुश गुज़री चिप चिपी शाम बन गई
एक तो जब से बड़े हुए है आँखों पे मोटा मोटा चश्मा लग गया है तो अब बारिश के मौसम मे:
चश्मे के लेंस पे पानी जो ठहर जाता है अंधे हो जाते है हम
चाय की चुस्की भुला देती है सारे ग़म
वो कड़ाही से निकलते गरम-गरम पकौड़ो की आस है
वो शाम-ए-बारिश क्या अभी भी इतनी ख़ास है
अब छाते ओर रेनकोट है ना हमें बारिश से बचाने के लिए
अब परेशानिया जो है भीगाने के लिए
अब बारिश तो आती है पर बचपन वापिस नहीं आता
गद्दो मे पानी तो भरता है पर उसमे कोई कागज की नाव नहीं चलाता
कुछ लोग अभी भी उसी बचपने मे जीते है
अब देखो ना तब हम खेल खेल मे एक दूसरे पर कीचड़ उछालते थे
आज कुछ लोग दुसरो पर कीचड़ उछाल कर खेल जाते है...