वो कंधो पर टंगे भारी से बस्ते
इन फ़िक्ररों के बोझ से तो काफ़ी थे हल्के
दोस्तों के साथ जो खुल-खुल के हँसते
वो हँसी में ग़म तो नहीं थे छुपाते
ना रुकती थी मस्ती, ना कम होती बाते
हक़ीक़त ने काटी नहीं थी ज़ुबाने
जब डिब्बे थे खुलते, तो मिल बाँट के खाते
जाति-धर्म पर नहीं छाँटे जाते
खेलते-खेलते थे शामे बिताते
ज़िम्मेदारियों की आग में नहीं झोंके जाते
ख़्वाबों की अपनी एक दुनिया बसाते
उस दुनिया का गला तब कहाँ घोंट पाते
थोड़ी-सी डांट पर भी तुरंत रो जाते
ना आंसू पीते, ना चीखें छुपाते
खुशियाँ गिर्द घूमती थी हमारे
हम खुशियों की तलाश में चक्कर नहीं थे लगाते
हम वो पंछी थे जिसकी परवाज़ का कोई दायरा ना था
अब हम वो पंछी है जो उड़ना भूल चूका है
हम वो थे जो बेबाक बोला करते था
अब हम हाल-चाल भी नाप-तोल कर बताते है
इस ज़िन्दगी की दौर में हमने हम को खो दिया
फिर भी इन जली कटी बातों में, इन ठंडी सी रातों में
मुझे कही मुझमे मेरा अक़्स नज़र आता है
शायद कही मुझमे मैं अभी भी ज़िंदा हूँ
परवाज़ नहीं तो क्या हुआ मैं अभी वही परिंदा हूँ
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