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तुम्हे शायद रोज़ हज़ारो लोग मिलते है
उन लोगो मे से किसी एक को चुनते है
उसी पर चलो एक कहानी बुन्नते है
सफ़ेद शर्ट पहने एक आदमी खड़ा है
कांधे पर उसके लैपटॉप बैग टंगा है
आँखों मे उसके जैसे ख्वाबों की लड़िया है
इज़्तिरार बता रहा है उसके ऑफिस जाने की गड़िया है
अरे देखो ये तो बस से पीछे छूट रहा है
तबस्सुम चेहरे की मिट सी गई है
अब शिकस्त सेहर मे बटने लगी है
पैर उसके अब थकने लगे है
और हारकर आखिर को वह रुक ही गया
अफ़सुर्दा साँसै भरने लगा
इंतेहा जब होगई साँसो की
जेब से मोबाइल फ़ोन निकल ही गया
कुछ समय तक उसने अपनी उंगलियां स्क्रीन पर इधर उधर करी
फिर एक लम्बी आह भरी
लगता है केब बुक हो गई
खलिश फ़िज़ा मे से मिटने लगी
कतरा तबस्सुम का फिर लौट गया
आसूदगी चेहरे पर खिलने लगी
और कुछ ही समय मे उसकी सवारी आ गई
इब्तिदा हुआ उसका सफर
सफर की तफसील हम नहीं जानते
कुछ लम्हे ही उस अजनबी को देखा
फिर नहीं मिलेंगे उससे कभी
इस बात को हम नहीं मानते
या शायद मानना नहीं चाहते
नहीं जानते थे उसको मगर जान-ए-ग़ज़ल वही बन गए
अब क्या पता उस अजनबी ने मेरे बारे मे क्या सोचा होगा
कुछ सोचा भी होगा क्या?
क्यूंकि मेरी तरह उसे भी रोज़ हज़ारो लोग मिलते होंगे ना
और हर कोई याद रहे ये तो मुमकिन ही नहीं
कहानी थी एक राह चलते शख्स की
अंत तो इसका होना था यही
राह भी वही थी,मंज़िल भी वही
फिर नजाने वह शख्स वापिस दिखा क्यों नहीं
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