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बात तब की है जब गांव में बड़ी मुश्किल से एक टीवी होती थी। गायत्री के गांव में भी एक ही टीवी थी और वो टीवी गायत्री के घर पर थी। गायत्री के बाऊजी पोस्ट ऑफिस में पोस्ट मास्टर थे। पोस्ट ऑफिस भी गायत्री के घर पर ही थी। यहां तक कि गांव का नाम भी गायत्री के दादाजी के नाम पर पड़ा था क्योंकि दादाजी ने ही गांव को बरसो पहले बसाया था।

गायत्री की शादी की उम्र हो गई थी सो उसकी शादी एक ठीक-ठाक परिवार में निर्भय नाम के लड़के से कर दी जाती है। निर्भय रेलवे में कलर्क रहता है। गायत्री को टी.वी. देखने का बहुत शौक था तो गायत्री दहेज़ में टीवी लाती है। वो जब भी काम से खाली होती है तो टी.वी. देखना पसंद करती है। बात शादी के कई सालों बाद की है, परिवार में वक़्त के साथ कई चीजें बदल चुकी हैं। गायत्री की सास और ननद, गायत्री को बिल्कुल पसंद नहीं करते है। शायद ही ऐसा कोई दिन होता है जब दोनों गायत्री के खिलाफ निर्भय के कान ना भरें।

 एक दिन गायत्री अपने दोनो बच्चो के साथ शाम के खाली वक़्त में बैठ कर टी.वी. देख रही होती है तभी अचानक गायत्री के सिर पर कोई पीछे से बहुत जोर से मारता है । गायत्री दर्द से चीख उठती है और बच्चे चीख से डर जाते है। गायत्री पीछे मुड़ती है तो मारने वाला कोई और नहीं निर्भय रहता है। वो गायत्री को जोर जोर से चिल्ला चिल्ला कर गाली देने लगता है, गायत्री कारण पूछती है और गाली देने से मना करती है तो वो उसे मारने पिटने भी लगता है। वो दर्द से कराह कर कहती है कि मुझे मार लीजिए, गाली भी दे लीजिए लेकिन मै आपके हाथ जोड़ती हूं कि आवाज बाहर ना जाने पाए नहीं तो लोग क्या कहेंगे, क्या इज्जत रह जाएगी । वो कहता है कि रुक ! आज तेरी सारी इज्जत नीलाम कर देता हूं, बहुत इज्जतदार बनती है ना तू !

वो गायत्री का बाल खींचते हुए उसे घर के चौखट पे लाता है फिर उसे चौखट पर ला कर गायत्री को बहुत मारता है और उसे बहुत गालियां देता है। जब निर्भय उसे घसीट के लाता है तो गायत्री की आधी साड़ी खुल जाती है। उसके शरीर का आधा हिस्सा दिख रहा होता है। निर्भय राक्षसों की तरह ये सोच के हस रहा होता है कि जिस इज्जत के गुमान पर गायत्री जी रही होती है, आज उसने वो भी सरेआम नीलाम कर दिया था। आधा गांव बाहर खड़ा तमाशा देख रहा होता है। गायत्री के बच्चे डर से रो रहे होते हैं और रोते रोते सिर्फ इतना ही कह रहे होते है कि मेरी मां को मत मारो..मेरी मां को मत मारो !

गायत्री की सास और ननद मुंह पे हाथ रख कर हंस रही होती हैं। कोई भी पड़ोसी ये रोकने की हिम्मत नहीं करता है। जब निर्भय मारते मारते थक जाता है तो कहता है – ले बन गई तेरी इज्जत! गायत्री कराहती हुई जोर की सांस लेती है और कहती है कि मैंने तो आप के इज्जत की बात की थी! मेरी इज्जत तो आप के इज्जत से थी।

धीरे धीरे भीड़ भी कम होने लगती है और अचानक भीड़ से एक अधेड़ उम्र की औरत आती है और कहती है – ये क्या कर रहा था तु , तुझे दिखाई नहीं देता, इसकी साड़ी खुल गई है। इसका चेहरा दिख रहा है, इसका घूंघट चेहरे से हट गया है। गायत्री की साड़ी जो उसके इज्जत के साथ मिट्टी में मिल गई थी , अधेड़ औरत साड़ी के एक किनारे को उठाती है , और गायत्री के चेहरे को ढक देती है। शरीर का कुछ और हिस्सा दिखने लगता है। वो कहती है - बीवी तेरी है , जो करना है कर, लेकिन घूंघट का तो ध्यान दिया कर, औरत घूंघट में रहनी चाहिए। समझा , औरत घूंघट में रहनी चाहिए!

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