भारत में राजनीतिक अपराधीकरण का इतिहास पुराना है. अंग्रेजों ने सत्ता में बने रहने के लिए आतंक फैलाया. ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत सम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने के लिए अपराधी तत्वों का प्रयोग किया, लेकिन अंग्रेजों ने अपराधी तत्वों को सत्ता से दूर रखा. सिर्फ उनसे काम लिया और उन्हें पैसा दिया.


आज़ादी के बाद जो सत्ता राजनीति का जो दौर शुरू हुआ, उसने महात्मा गांधी का संदेश ‘साधनों की पवित्रता पर बल’ अधिकांश राजनीतिक खिलाड़ियों ने भुला दिया. ऐसा नहीं है कि वर्तमान में ही अपराधी तत्वों का उपयोग होता है. पहले आमचुनाव में भी अपराधी तत्वों का उपयोग किया गया था, लेकिन वह सीमित प्रयोग था और संकोच के साथ किया गया था.

दूसरे आमचुनाव में अपराध जगत से जुड़े व्यक्तियों का कुछ अधिक उपयोग किया गया और अब पहले जैसा संकोच नहीं था. तीसरे आमचुनाव में अपराधी तत्वों का प्रयोग करके मतदाताओं को डराना-धमकाने, उन्हें वोट न डालने देने की अनेक घटनाएं सामने आईं.

इस संदर्भ में चुनाव आयोग के सामने शिकायतें भी की गईं, पर न तो इन शिकायतों पर गंभीरता से ध्यान दिया गया और न ही इस बुराई को दूर करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाए गए.

छठे दशक तक आते-आते राजनीति की परिभाषा बिल्कुल बदल चुकी थी. 1962 में चीन के हाथों भारत की पराजय ने बाद, कांग्रेस ने महसूस किया कि उसका जनाधार खिसक रहा है, तब उनके आत्मविश्वास में भारी कमी आई.

तब कांग्रेस ने अपराधीकरण, भ्रष्टाचार और जातिवाद जैसी बुराइयों से निबटने की जगह इन बुराइयों के साथ हाथ मिला लेने की बात सोची.

1965 तक आते-आते कुछ बड़े और साधन संपन्न अपराधियों के मानस ने राजनीतिक महत्वकांक्षा के अंकुरों ने जन्म ले लिया. अब वे सोचने लगे कि उन्हें ख़ुद चुनाव लड़ना चाहिए और वे ख़ुद किसी प्रमुख राजनीतिक दल के उम्मीदवार बन सकते हैं और चुनाव जीत भी सकते हैं.


1967-68 के वर्षों में, विशेष रूप से उत्तर भारत के राज्यों में राजनीतिक उठा पटक हुई. घोर अव्यवस्था, अनुशासनहीनता, रोज़ दल-बदल, कुछ कमजोर व्यक्तियों का मुख्यमंत्री बनना, मंत्री पद पर आसीन व्यक्तियों के गिरते हुए स्तर जैसी घटनाओं ने शेष बची सभी राजनीतिक मान-मर्यादाओं को झटके से समाप्त कर दिया.

बिहार राज्य के भूतपूर्व पुलिस महानिदेशक डी. एन. सहाय कहते हैं “1967 तक अपराधी अपने राजनीति के स्वामियों के सहायक के रूप में काम करते थे, इसके बाद उन्होंने ख़ुद सत्ता प्राप्त करने की बात सोची.”

1971 का लोकसभा चुनाव ‘सर्वग्रासी युद्ध’ के रूप लड़े गए. देश के अनेक राज्यों में मत पेटियां लूटने की घटनाएं हुईं और इसमें हरियाणा, कश्मीर और बिहार अग्रणी रहे.

1977 के लोकसभा चुनाव में विशेष परिस्थितियों के चलते अपराधी तत्वों का प्रभाव अपेक्षाकृत कम हो गया. 1980 और 1984 के लोकसभा चुनाव भी किसी-न-किसी रूप में ‘मुद्दा आधरित चुनाव’ थे. इसलिए स्थिति ने और अधिक विकृत प्राप्त नहीं की.

मगर 1989 से लेकर साल 2000 तक राजनीतिक अपराधीकरण की दिशा में देश इतनी अधिक तेजी से आगे बढ़ा है कि अंतिम दशक तक स्थिति सोचनीय हो गई है.

1989 में देश में जो चुनाव हुए, उस दौरान अपराधी तत्वों और माफ़िया सरदारों का जैसा प्रयोग राजनीतिज्ञों ने किया, वह लोकतंत्र की दृष्टि से शर्मनाक स्थिति थी.

1990 में हरियाणा के ‘मेहम कांड’ को देश कभी नहीं भूल सकता.

उत्तर प्रदेश और बिहार की तरह ही मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उत्तर-पूर्व के राज्य, महाराष्ट्र, गुजरात और आन्ध्र प्रदेश भी राजनीति के अपराधीकरण से ग्रसित हैं. रूसी पठान, आरिफ़ अकील, राजा भैया, दीनानाथ भास्कर प्रमुख नामों में शामिल हैं.


1980 में बिहार विधानसभा में 20 से अधिक ऐसे विधायक थे, जिन पर या तो अपराध के मुक़दमे चल रहे थे या हिस्ट्रीशीटर थे.

1996 में उत्तर प्रदेश के 424 विधानसभा सदस्यों में से 132 संदेहास्पद अपराधी थे, जिनमें से 16 कल्याण मंत्रिमंडल के सदस्य थे.

16 वीं लोकसभा में 542 लोकसभा सदस्यों में से 185 पर आपराधिक मामले जैसे हत्या, हत्या का प्रयास, संप्रदायिकता विद्वेष फैलाना और फिरौती मांगना चल रहे हैं.

वहीं 17 लोकसभा में 233 सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं. इसमें से 475 सांसद करोड़पति हैं.

एक विचारशील सांसद जयपाल रेड्डी ने 1997 में संसद में कहा था “सभी राजनीतिक दलों का अपराधियों के साथ गठबंधन है. इस सम्बंध में विभिन्न राजनीतिक दलों में केवल मात्रात्मक अंतर है, कोई गुणात्मक अंतर नहीं है. सभी राज्यों में यही स्थिति है, बस प्रकृति का अंतर हो सकता है.”

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