‘भोंसले’ फ़िल्म मराठी बनाम उत्तर भारतीय के मुद्दों को लेकर बनाई गई है. स्थानीय और बाहरी का मुद्दा सालों से उठता रहा है, लेकिन इस पर कोई ढंग की फ़िल्म नहीं बन पाई थी. इस कमी को पूरा किया है 'भोंसले’ फ़िल्म ने. इस फ़िल्म में मनोज बाजपेयी ने प्रमुख किरदार निभाया है, जो अपने अभिनय से आपका दिल जीत लेंगे.

कहानी की शुरुआत मुंबई के गणेशोत्सव के साथ शुरू होती है और उसी के साथ खत्म होती है. कहानी है मुंबई के एक चॉल की. इस चॉल में गणपतराव भोंसले ( मनोज बाजपेयी) रहते हैं, जो कि एक बुजुर्ग पुलिस कॉन्सटेबल हैं,जो अब रिटायर हो चुके हैं. वो किसी से बात नहीं करते हैं. चुपचाप एकांत में रहते हैं, अपने छोटे, भूरे रंग के फ्लैट के चार दीवारों के भीतर. बस वो चाहते हैं कि पुलिस की नौकरी में उसे एक्सटेंसन मिल जाए ताकि रिटायरमेंट के बाद वाली नीरस ज़िंदगी से वह बच जाएं. भोंसले के ही चॉल में एक टैक्सी ड्राइवर विलास(संतोष) रहता है, जो अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा को पूरा करने के लिए बिहारी लोगों के खिलाफ सभी को भड़काता रहता है.

इसी बीच भोंसले के पड़ोस में बिहार से एक लड़की रहने के लिए आती है, जिसका नाम सीता है, जो कि एक नर्स हैं.और उसका एक छोटा-सा भाई है, जिसका नाम लालू है.परिस्थितियां ऐसी बनती हैं, उनसे कुछ ही दिनों में भोंसले का आत्मीय रिश्ता जुड़ जाता है. जैसे भोंसले बीमार पड़ते हैं, तो अस्पताल में उनकी देखभाल ख़ुद सीता करती है. लेकिन टैक्सी ड्राइवर विलास अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए बिहारियों के लिए गंदे शब्दों का इस्तेमाल करता रहता है जैसे भेय्ये, कुत्ते . भोंसले से भी मराठी लोगों के समर्थन के लिए कहता राहत है, लेकिन भोंसले उसका पक्ष नहीं लेते थे. इसी मराठी और बाहरी के आग में सीता को जलना पड़ता है.

मनोज वाजपेयी साइलेंट हीरो के किरदार में नज़र आए

देवाशीष मखीजा इस फ़िल्म के डायरेक्टर हैं. एक्टर की बात करें तो मनोज वाजपेयी ने गणपतराव भोंसले का किरदार निभाया है, जो कि उनके हाव-भाव से बिल्कुल मिलता है. खामोशी के माध्यम से किरदार के भीतर की पीड़ा और गुस्से को उन्होंने बखूबी व्यक्त किया है. संतोष जुवेकर ने टैक्सी ड्राइवर विलास का रोल किया है, जो कि इनपर काफ़ी जंचता हुआ नज़र आया. इनका अभिनय सधा हुआ है. सीता का रोल इप्शिता चक्रवर्ती सिंह ने किया है. इप्शिता की तारीफ करनी होगी उन्होंने बखूबी अपने किरदार से जुड़ी बारीकियों को पकड़ा है, चाहे भाषा हो या फिर बॉडी लेंग्वेज. विराट वैभव ने सीता के छोटे भाई का अभिनय किया है. विराट वैभव, परफेक्ट टाइमिंग और बारीक अभिनय के साथ ख़ूबसूरती से चिपके हुए नज़र आ रहे हैं.

सिनेमाटोग्राफी और ख़ामियां

फ़िल्म की सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है. जो हर किरदार और दृश्य के मर्म को बखूबी बयां करती है. जैसे भोंसले ( मनोज वाजपेयी ) रोटी और पानी वाली दाल बनाते हुए नज़र आ रहे हैं. दाल में दाल का एक कण भी नहीं है. यह दृश्य बहुत ही भावनात्मक प्रतीत हो रही है. छत से टपकाता पानी, कैरोसिन वाला स्टोव, खिड़की पर कौवों का बैठना और पुराने ज़माने का रेडियो. ये सब दृश्य प्राकृतिक और इमोशनल लगते हैं. फ़िल्म का बैकग्राउंड बिल्कुल सादा है, जो कि कहानी को और प्रभावी बनाता है.

अब बात ख़ामियों कीं. इस फ़िल्म की सबसे बड़ी ख़ामी है कि ज़रूरत से ज़्यादा धीमा होना. फिल्म की अवधि कम करके अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता था. भोंसले की दुनिया और दिनचर्या दिखाने में बेवजह के 25 मिनट बर्बाद कर दिए गये हैं. कई दृश्यों को बेवजह दोहराया गया है. अभिषेक बनर्जी के किरदार को नकारात्मक दिखा कर कहानी को शुरुआत में अच्छा बैलेंस किया गया था. लेकिन फिर अभिषेक बनर्जी का किरदार अचानक से कहानी से क्यों गायब कर दिया गया यह भी समझ नहीं आता है.

इस फ़िल्म को क्यों देखनी चाहिए?

भोंसले' आज के सामाजिक मुद्दों को बख़ूबी उठाया है. यह फ़िल्म आज के समय में बहुत प्रासंगिक है, यह एक लघु फिल्म के रूप में बेहतर साबित होगी. हालांकि फिल्म को देखने के लिए आपके पास पेशंस भी होना चाहिए. इस फिल्म को इसलिए देखना चाहिए क्योंकि प्रवासियों के वापस घर लौट जाने से होने वाली दिक्कत का सामना अब लोग करने लगे हैं. उनके रहने से होने वाली परेशानी से इतर उनकी कमी को समझने के लिए बेहद असरदर है यह फ़िल्म. कुल मिलाकर मनोज बाजपेयी की यह रियलिस्टिक फ़िल्म देखी जानी चाहिए.

फ़िल्म : भोंसले

निर्माता : मनोज बाजपेयी, संदीप कपूर

निर्देशक :देवाशीष मखीजा

कलाकार : मनोज बाजपेयी, संतोष जुवेकर, विराट वैभव, इप्शिता चक्रवर्ती सिंह, अभिषेक बनर्जी

समयावधि : 1 घंटा 58 मिनट

प्लेटफॉर्म : सोनी लिव

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