समाज में जब भी किसी विषय पर चर्चाएं हुई हैं, तो वर्तमान को देखा गया है. क्या यह उचित है? वर्तमान ही सब तय करता है. फिर जो इतिहास में बीत गया उसका क्या? वर्तमान के बाद भविष्य का क्या?

समाज में विषमताएं हैं. अन्याय अगर किसी पर सबसे ज़्यादा हुआ है, तो महिलाओं पर. महिलाओं पर हुए अन्याय ने नारीवाद को जन्म दिया.

नारीवाद की चिंता का मुख्य बिंदु समाज में महिलाओं की स्थिति है. नारीवाद ने यहां तक कह दिया है कि जो भी महिलाओं पर अत्याचार हुआ है, संस्कृति की देन है. इसके लिए सबूत भी पेश किए हैं.

संस्कृति ने पहले से सोच रखा था कि जहां पुरुष दबंग होगा, वहां स्त्री दबकर रहेगी. पुरुष क्रुद्ध होगा, स्त्री शांत रहेगी. सच पता लगाने के लिए पुरुष तर्क-वितर्क करेगा, स्त्री मन की आंखों से देखने का प्रयत्न करेगी. पुरुष अपने मन की भावनाओं को छिपाएगा, स्त्री अपने मन की भावनाओं को प्रकट कर देगी.

इस तरह की सामाजिक संरचना प्रकृति की देन नहीं है. यह समाज ने बनाया है. पुरुषों ने अपने सुविधानुसार समाज की परिभाषा रच दी है. प्रकृति ने सिर्फ़ पुरूषों और महिलाओं में एक अंतर किया है- शारीरिक बनावट में. वैसे प्राकृतिक विधान की दृष्टि से स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं. एक- दूसरे के सहयोग से समाज चलता है.

लेकिन इसके विपरीत पुरुषों ने क्या किया? सिर्फ़ महिलाओं का दमन और शोषण. यह छवि स्त्री -पुरुष को ऐसी समाज -व्यवस्था के सांचे में ढाल देती है, जो पितृ समाज को जन्म देता है. श्रम-विभाजन को भी बढ़ावा मिलता है.

नारीवाद, पुरुष के इस तरह के विचार का ज़ोरदार विरोध करते हैं. कहते हैं

“ आज के ज़माने में वैज्ञानिक सोच, शिक्षा और व्यवसाय से जुड़े अवसरों के विस्तार के साथ यह सिद्ध हो चुका है कि स्त्री-पुरुष की मानसिक क्षमताओं, निर्णय-बुद्धि और उत्तरदायित्व से जुड़ी योग्यताओं में कोई अंतर नहीं है.”

महिलायें किसी भी चीज़ में पीछे नहीं हैं. चाहे खेल-कूद हो, घर का काम, बच्चों की देखभाल, चाहे ऑफिस के कार्य. बस उच्च शिक्षा और उचित प्रशिक्षण की ज़रूरत है.

नारीवाद स्वतंत्रता की मांग करते हैं. हालांकि संविधान ने जितना पुरुषों को अधिकार दिया है, उतना ही महिलाओं को भी.

नारीवाद के मुताबिक़ उन्हें अपने शरीर पर पूर्ण नियंत्रण चाहिए. परिवार नियोजन और गर्भपात जैसे विषयों पर स्त्री की इच्छा को पूरा सम्मान मिलना चाहिए.

महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्जा दिलाना नारीवाद चिंतन और आंदोलन का मुख्य लक्ष्य रहा है.

महिलाओं के अधिकारों की मांग सबसे पहले ब्रिटिश की दो महिलाओं ने उठाई थीं. मेरी वॉल्स्टनक्राफ्ट और हैरियर टेलर ने.

इसके बाद जॉन स्टुअर्ट मिल ने महिलाओं के अधिकार की मांग किया. उन्होंने महिलाओं के अधिकार के लिए किताब लिखीं ‘ सब्जैक्शन ऑफ़ वीमेन’. इस किताब में वो सभी अधिकार हैं जो भारतीय संविधान ने महिलाओं को दिए हैं. साथ ही संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में भी यही अधिकार शामिल हैं.

महिलाओं को वोट देने का अधिकार के लिए आंदोलन शुरू हुआ. बात है उन्नीसवीं शताब्दी की. सबसे पहले 1906 में फ़िनलैंड ने महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्रदान किया. 1907 में नार्वे ने. सिलसिला बढ़ता गया.

नारीवादियों के लगातार प्रयास का नतीजा यह हुआ कि संयुक्त राष्ट्र संगठन ने 1976 से 1985 के दशक को नारी दशक घोषित कर दिया.

यूरोप और अमेरिका ने महिलाओं के अधिकारों के संरक्षण के लिए क़ानून बनाए. भारत ने भी महिलाओं के अधिकारों पर ज़ोर दिया. बलात्कार , यौन-शोषण, दहेज-प्रथा, दहेज-हत्या और घरेलू हिंसा जैसे अपराधों को ख़त्म करने के लिए सरकार ने क़ानून बनाया है.

1994 से गर्भस्थ शिशु का लिंग जांच को ग़ैर-क़ानूनी बना दिया गया है. इसके अलावा अनैतिक व्यापार अधिनियम 1956, दहेज-निषेध अधिनियम 1961, सती प्रथा (निरोध) अधिनियम 1987, घरेलू हिंसा से नारी के संरक्षण सम्बंधी अधिनियम 2005 बनाए गए. इससे महिला सशक्तीकरण की दिशा में कुछ प्रगति की हुई है.

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