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गोवा एक ऐसा प्रदेश जो, हर किसी को अपनी प्राकृतिक सौंदर्य का कायल बना देता है। हर किसी के चित्तपटल पर, अपनी एक अलग छाप, आजीवन के लिए अंकित कर देता है। यहाँ आने वाला हर यात्री अपने साथ अनेक आकांक्षाएं लेकर आता है, लेकिन जाते समय अपने साथ अनेक खुशियाँ तथा असीम सुनहरी यादों का पिटारा लेकर जाता है।

जिस गोवा के सौंदर्य के संदर्भ में आज हम जो बात कर रहे हैं, क्या होता है यदि, यह गोवा अलग राज्य ना होकर पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र का ही एक भाग होता तो ? आज शायद, यह बात सोचने में भी नाममुकीन उनकी लगती है, लेकिन आज से 55 साल पहले, गोवा की आजादी के तुरंत बाद, गोवा के अस्तित्व पर मंडराने वाला यह सबसे बड़ा खतरा था। उस समय यदि गोवा के राजनीतिज्ञों ने अपने दायरे को सीमित ना करते हुए, यदि ठोस कदम नहीं उठाए होते तो शायद भारत के सबसे सुंदर राज्य का अस्तित्व ही मिट जाता, कहीं गुमनाम बनकर रह जाता है।

सन 1961 में, गोवा पुर्तगालियों के चंगुल से आजाद हुआ और इस विशाल भारत का, हमेशा के लिए अविभाज्य भाग बन गया। पुर्तगालियों ने गोवा पर एक दो नहीं बल्कि साढ़े चार सौ वर्षों तक, गोवा पर राज्य किया था। जाहिर सी बात है, पुर्तगाली शासन की, उनके संस्कृति की छाप गोवा पर गहराई तक अंकित हो चुकी थी। ऐसे इस आजाद गोवा के नसीब में, खुशी के पल शायद कम ही लिखे थे क्योंकि, अभी कुछ समय ही बीता था और आजादी की खुशी पर मानो ग्रहण लग गया था क्योंकि, जल्द ही, गोवा के अस्तित्व पर ही, काली छाया मंडराने लगी थी। मसला यह था कि, आज़ाद गोवा में, अब मुख्य कहा दो प्रमुख मुद्दे उभर कर सामने आ रहे थे, कुछ लोगों को ऐसा लगता था कि, क्योंकि गोवा की संस्कृति काफी हद तक, महाराष्ट्र से मेल खाती है, तो गोवा को महाराष्ट्र में विलीन करना ही सबके लिए हितकर साबित होगा। इस मत के पक्षधर थे, श्री. दयानंद बंदोडकर जी, जो महाराष्ट्रवादी गोमंतक पार्टी से आते थे। वहीं दूसरी ओर, कुछ ऐसे भी लोग थे, जिनको ऐसा लगता था कि, गोवा की अलग पहचान है, उसकी अपनी अलग संस्कृति, उसकी अपनी अलग मातृभाषा है, तो ऐसे में, गोवा को महाराष्ट्र में विलीन किए बिना उसे केंद्र शासित प्रदेश के रूप में स्थापित करना ही उचित होगा। इस मत के साथ प्रखरता से खड़े रहने वालों में थे, डॉ. जैक सिक्वेरा, जो यूनाइटेड गोवन्स पार्टी के सदस्य थे।

इन दोनों मुद्दों को लेकर श्री. दयानंद बंदोडकर और श्री जैक सिक्वेरा इन दोनों के बीच घमासान संघर्ष छिड़ गया था। इसी बीच, 9 दिसंबर 1963 अर्थात, गोवा मुक्ति के 2 साल बाद गोवा में पहला चुनाव लड़ा गया। इस चुनाव में भाग लेने वाले थे, महाराष्ट्र गोमंतक पार्टी के श्री. दयानंद बंदोडकर तथा यूनाइटेड गोवन्स पार्टी के डॉ. जैक सिक्वेरा और इस चुनाव के नतीजे यह रहे कि, श्री दयानंद बंदोडकर गोवा के पहले मुख्यमंत्री के रूप में गोवा की राजगद्दी पर आसीन हुए।

इन चुनावी नतीजों के बावजूद भी, इन दोनों पक्षों के बीच गोवा के अस्तित्व के प्रश्न को लेकर घमासान संघर्ष जारी रहा। दोनों ही पक्ष, किसी भी हालत में पीछे हटने को तैयार नहीं थे। काँग्रेस के नेता स्व. श्री. पुरुषोत्तम काकोडकर ने भी यूनाइटेड गोवन्स पार्टी का साथ देते हुए, अपनी पूरी जी जान, इस मोहिम में लगा दी और आखिरकार भारत सरकार द्वारा, 3 सितंबर 1960 को, गोवा के अस्तित्व तथा राजनीतिक भवितव्य को निर्धारित करने के लिए 16 जनवरी 1967 को जनमत सर्वेक्षण (Opinion Poll) लेने का निर्णय लिया गया।

अब, गोवा को महाराष्ट्र में विलीन किया जाए या फिर केंद्र शासित प्रदेश के रूप में प्रस्तापित किया जाए, यह पूरा निर्णय लेने का हक सिर्फ और सिर्फ गोवावासियों के हाथ में दिया गया था। भारत में, ऐसा पहली बार हो रहा था कि, किसी राज्य के भवितव्य को निर्धारित करने के लिए जनमत सर्वेक्षण चुनाव लिया जा रहा था। इस चुनाव के लिए सारी तैयारियाँ शुरु होने लगी थी। विलीनीकरण अर्थात गोवा को महाराष्ट्र में विलीन करें इसके लिए ‘फूल’ यह चिन्ह चुना गया तथा केंद्र शासित प्रदेश के रूप में गोवा राज्य को प्रस्थापित करने के लिए ‘दो पत्ते’ यह चिन्ह निश्चित किया गया।

गोवा, आज जिसकी पहचान यह है कि, ‘गोंयकार म्हणजे सुशेगाद’। तब यह अंदाजा भी लगाना मुश्किल था कि, ‘सुशेगाद’ कहे जाने वाले गोवावासियों के मन में आजादी के कई सालों बाद, फिर से अपनी मातृभूमि के लिए कुछ कर गुजरने की ज्वाला धधक उठी। यह संघर्ष इतना त्रीव था कि, दोनों ओर से, अपने-अपने पक्ष, किस प्रकार सही है यह साबित करने पर तुले थे। अपने मुद्दों के प्रचार के लिए, दोनों पक्षों ने नए तरीके अपनाने की कोशिश की थी, जिससे आम जनता उनसे प्रभावित होकर उनके पक्ष के हित में मत दे।

जो लोग विलयन के समर्थक थे, उन्होंने अपने पक्ष के मत को सफल बनाने के लिए कई तरीके अपनाए जैसे कि, वे गाँव-गाँव में पैदल घूमे, सभाओं का आयोजन किया, गोवा के लिए विलीनीकरण क्यों जरूरी है, यह बात आम जनता तक पहुँचाने के लिए महाराष्ट्र से सांबळे, अमर शेख जैसे शाहिरों को बुलवाया गया। जिन्होंने अपने-अपने गीतों तथा पोवाड़ों के माध्यम से महाराष्ट्र का इतिहास कितना समृद्ध है, तथा गोवा के महाराष्ट्र में विलयन से गोवा प्रदेश के लिए कितना हितकर होगा यह बताया गया।

यह एक पोवाडा है जिसमें श्री छत्रपति शिवाजी महाराज के शौर्य को गाया गया है –

स्वराज्य नवे स्थापले
विश्व व्यापले
वैरी कापले
युध्द रण वीर गाजला ठास
त्यांनी शत्रुंचा केला ह्रास
ऐका शूर शिवबाचा इतिहास
आधी नमन जीजा मातेला
शहाजी राजेला शूर मर्दाला
भोसले यदुवंश घराण्याला
पहिला संकल्प त्यांनी केला
तोच संकल्प तडीस नेला
बळ दिले भावी स्वराज्याला

सच में इन पोवाड़ों में वीर रस इतना प्रभावशाली होता है कि, सुनने वाले के रोंगटे खड़े हो जाते थे। छत्रपति शिवाजी का इतिहास, उनकी शौर्य गाथाएँ इतनी मंत्रमुग्ध करने वाली हैं कि, कोई भी इसकी ओर आकर्षित हो जाए।

जब एक पक्ष इतनी कड़ी मेहनत कर रहा हो तो, ऐसे में, दूसरा पक्ष हाथों पर हाथ धरे कैसे बैठा रह सकता है ? गोवा के भूमिपुत्र, आखिर अपने माँ के अस्तित्व को कैसे मिटने दे सकते थे ? गोवा के शाहिर श्री. उल्लास बुयांव तथा श्री शंकर भांडारी जी ने गायकों, कांतारिस्त कों तथा अन्य कलाकारों को लेकर ‘जय गोमन्तक’ नाम का एक कला दस्ता तैयार किया।

ध्यान देने वाली बात यह है कि, यह समय वह था, जब टीवी, मोबाइल का नामोनिशान नहीं था और मनोरंजन के सिर्फ मात्र साधन थे नाटक, तियात्र, दशावतार, आदि। तो ऐसे में, जय गोमंतक कला दस्ता के कंधे पर, यह जिम्मेदारी आ गई कि, यह मनोरंजन की डोर पकड़कर गोवावासियों के मन में, मातृभूमि की अहमियत को स्थान देना तथा केंद्र शासित प्रदेश के हित में उनका मत डलवाना। यह दस्ता ‘आमचे गोयंका जाय’ इस मुख्य संदेश को आगे लेकर बढ़ने लगा। कहीं ना कहीं, जय गोमंतक कला दस्ते की यह कोशिश सफल रही। गोवा के घर - घर में, हर एक गाँव - गलियों में, इस दस्ते के गाने तथा नारे अपनी अनोखी पहचान के साथ, लोगों के दिलों - दिमाग में, घर बना चुके थे। इतना ही नहीं, ‘आमचे गोयंका जाय’ इस संदेश को गोवा के कोने - कोने में पहुँचाने हेतु श्री. शाबू देसाई जी ने गोवा के कुंकळ्ळी गाँव से ‘संघ प्रदेश ज्योत’ को प्रज्वलित कर, पूरे गोवा में पदयात्रा निकाली।

तत्कालीन समय के, मराठी दैनिक राष्ट्रमत के संपादक श्री. चंद्रकांत केणी जी ने भी इस सरकार के विलयन नीति के विरोध में ‘ब्रह्मास्त्र स्तंभ’ लेखन द्वारा इस मोहिम में, अपना हाथ बटाया। यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि, कहीं ना कहीं हर गोवा के हर मातृभूमि के प्रेमी ने, इस मोहिम में अपने अपने हिसाब से, अपनी ओर से छोटा ही सही योगदान अवश्य दिया है।

आखिरकार, 14 जनवरी 1967 को यह पूरा प्रचार समाप्त हुआ और 16 जनवरी 1967 को यह अनोखा जनमत सर्वेक्षण चुनाव मुकम्मल हुआ। और फिर आया 19 जनवरी का दिन, नतीजे का दिन। चुनाव के नतीजे आए, गोवावासियों के अखंड परिश्रम का आखिरकार मीठा फल उनकी झोली में आ गिरा था। ‘दो पत्ते’ के चिन्ह ने, 34000 से भी ज्यादा वोटों को अपने नाम करा कर जीत हासिल कर ली थी। इसी के साथ, गोवा के उन्मुक्त, स्वतंत्र अस्तित्व की भी जीत हुई थी।

गोवावासी होने के नाते, इस अखंड लामणदिवो में प्राणज्योत फूँकने वाले हर उस मातृभूमि के सुपुत्र को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम!!!

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