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मेरे घर के सामनेवाला मकान आज खाली है, और किसी भूतिया बंगले से कम नहीं है। लेकिन, हमेशा से ऐसा नहीं था, इस बेजान से मकान में भी कभी जान हुआ करती थी। आज इस मकान में, जो शमशान सी खामोशी फैली है, वह पहले कभी नहीं थी। ये मकान भी भरा – पूरा था। खुशियों की चहचहाहट गूँजती थी। पर कहते हैं ना, खुशियों को जल्दी नज़र लग जाती है, और ऐसा हुआ भी। यह कहानी है, रेणू की। मेरी पड़ोसन। लगभग 15 – 18 सालों से मेरी पड़ोसी रही हैं। इन सालों में, वे कभी भी पड़ोसी धर्म के पालन में नहीं चूँकी। आज उनकी कमी बहुत खलती है।

रेणू अपने पति और दो बच्चे – एक बेटा और बेटी के साथ इस घर में रहती थी। दोनों बच्चे ठीक -ठाक कमानेवाले थे। उनके पति, सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके थे, और अपनी जिंदगी भर की कमाई लगाकर, उन्होंने अपने सपनों का आशियाना यहाँ बसाया था। लेकिन बच्चों के मत से, पिताजी का यों शहर से दूर घर बनाना, सबसे बड़ी बेवकूफ़ी थी। कहते हैं, बोलना बहुत आसान होता है, लेकिन इसमें तो पिता की कमाई लगी थी। बीतते समय के साथ, दोनों बच्चों की शादियाँ हो गईं थीं, और नाती – पोतों के साथ परिवार बढ़ने लगा था।

जैसा सामान्य परिवारों में आम – तौर पर होता है, बहू और सास के बीच, कभी भी नहीं बनी और बेटे ने भी माँ का साथ छोड़ दिया। इतना ही नहीं, वह उसी घर में ऊपरी मंजिल पर अपने बिवी बच्चों के साथ रहने लगा। बहू ने पोतों को दादी के पास नीचे भेजना तथा उनसे बात करने से मना कर दिया था। इसी बीच, रेणू के सबसे बड़े सहारे, उनके पति का देहांत हो गया। यहीं से मश्किलें, उनके जीवन में, एकदम भयानक करवट लेने लगीं। देखा जाए तो, ये घर में होनेवाली नोंक-झोंक, वैसे तो सामान्य घटनाएँ थी, लेकिन एक अकेले रहनेवाले व्यक्ति के लिए, यही घटनाएँ झकझोरकर रख देने के लिए काफी थीं।

जैसे तैसे रेणू की जिंदगी कट रही थी। इसी बीच उनके बेटे ने भी उनसे बात करना छोड़ दिया। उनकी हमेशा से आदत थी कि, शाम होते ही वह अपने बेटे की राह तकती दरवाजे पर खड़ी हो जाती थी और, यह आदत तब भी उनका दामन थामे, उनके साथ खड़ी थी जब, उनका बेटा अपने परिवार के साथ, एक दूसरे मकान में रहने के लिए चला गया। इसके बाद उनकी बेटी ने, उनकी जरूरतों की जिम्मेदारी उठा ली। कुछ दिनों बाद, वह रेणू को अपने घर लेकर गई। एक ओर, यहाँ सब बेफिक्र हो गए थे कि, रेणू अब एक अच्छी जगह पहुँच गई है, जहाँ उन्हें, अकेलापन तो नहीं खाएगा। लेकिन कुछ ही दिनों में, सबकी उम्मीदें बिखर गई, जब यह पता चला कि बेटी, रेणू को अपने यहाँ इसलिए लेकर गई थीं ताकि, वह उसके घर के सारे काम कर सके। इस संदर्भ में, जब रेणू ने उससे जवाब माँगा तो, उसने बिना कोई समय, कोई प्रहर देखे, रात के समय ही उसे घर से धक्के मारकर, बाहर फेंक दिया। वह रात उन्होंने जैसे – तैसे, अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ निकाली और दूसरे ही दिन वे वापस अपने घर लौट आयीं।

अब वे अकेली, उस घर में रहा करती थीं। कहीं ना कहीं रेणू, अपने बच्चों पर निर्भर थीं। भले ही उनके पति की पेन्शन, बैंक खाते में आती थी लेकिन, बैंक से कैसे पैसे निकलवाने हैं, ये उसे पता नहीं था। अब बेटा, उनसे मिलने और घर के राशन का कुछ सामान लेकर तो आता था, लेकिन हफ्ते में सिर्फ एक बार। आदतन वे हर रोज़ शाम, दरवाजे पर अपने बेटे की राह तकती खड़ी रहती और देर रात, निराश होकर वापस घर के अंदर चली जाती थी। आखिर मनुष्य सिर्फ और सिर्फ, प्रेम और अपनेपन का ही तो भूखा होता है।

शुरुआती 8 – 10 महिने तो आराम से गुजरे, जहाँ वह खुद जाकर घर के जरूरत का सामान खरीद लाती थी। धीरे – धीरे घर का अकेलापन उनपर हावी होने लगा था। उन्हें तरह – तरह के भ्रम होने लगे थे। घर में अनेक लोगों का खिड़की से कूद कर आना, उन्हें मारने की कोशिश करना, उन्हें खाना खाते देख उनकी थाली उठाकर भागना, आदि सारी चीजों के बारे में रो – रो कर पड़ोसियों को बताया करती थी। लेकिन पड़ोसियों व्दारा किये गए, जाँच पड़ताल में ये सिर्फ रेणू का भ्रम साबित हुआ। उनके घर का मुख्य दरवाज़ा मौसम की सर्दी की वजह से कभी – कभी जाम हो जाता था। एक बार रेणू, जब बाज़ार से लौटी तो, उन्होंने पाया कि, दरवाज़ा नहीं खुल रहा है। वे एकदम से घबराकर, जोर – जोर से रोते हुए पड़ोसियों का दरवाजा खटखटाने लगी, यह कहकर कि, घर में लोग घूस आए हैं, उन्होंने दरवाज़ा अंदर से बंद दिया है और अंदर से मुझपर हँस रहे हैं। पड़ोसी तुरंत मदत के लिए पहुँचे, हालाँकि पड़ोसियों के जरा-से ज़ोर लगाने पर, दरवाज़ा खुल गया और अंदर कोई भी नहीं था। पड़ोसियों ने उन्हें, काफी समझाने की कोशिश की कि, वह सिर्फ उनका भ्रम था लेकिन, उन्होंने कभी भी इस बात का स्वीकार नहीं किया। एक दिन रेणु एकदम से भयभीत होकर हमारे दरवाज़े पर आ गयी और कहने लगी कि, घर में रहनेवाले लोग उनका जीना मुश्किल कर रहे हैं, इसलिए अभी के अभी मेरे बेटे को बुला लाओ – यह कहकर, उन्होंने अपना फोन मेरे हाथ में थमा दिया था। उनके फोन पर, मैं जब उनके बेटे का नंबर खंगालने लगी तो पाया कि, उनके फोन पर, कोई नाम या नंबर मौजूद नहीं था। बच्चों ने उनके फोन की मेमरी साफ कर दी थी, ताकि वे, उन्हें काम के वक्त परेशान ना कर सके। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न, – क्या एक माँ के मन से, उनके पूरे जीवन तथा बच्चों की यादें इसी तरह हटायी जा सकती हैं? फोन पर किसी का भी नंबर ना होने की बात सुनकर, वह फूट – फूटकर रोने लगीं। ऐसा लगा कि, किसी भी माता – पिता के जीवन में, कभी भी ऐसा समय ना आए। समय के साथ, उनकी यह बीमरी उनपर अपना शिकंजा कसती गयी।

रेणू के पास, तीन पालतू कुत्ते थे और एक बिल्ली थी। कहने की बात यह है कि, जिन बच्चों को उन्होंने अपने गर्भ से जना था, उन्होंने तो उनसे मुँह फेर लिया था। लेकिन इन बेजुबान प्राणियों ने, आखिरी समय तक उनका साथ नहीं छोड़ा। भ्रमित होकर, लक्ष्यहीन गाँव में जब वे घूमा करती थी, तब यह पूरी पलटन उनके साथ रहा करती थी। रेणू ने भी, अपनी बुरी हालत में भी, इन बेजुबानों के पेट भरने का प्रबंध कर रखा था। पड़ोसियों माँगकर ही सही, वह उनके लिए कुछ ना कुछ लेकर आती थी।

उनके आखिरी दिन, इतने बुरे हालातों में गुजरे कि, वे खुद क्या पहन रही हैं, कहाँ जा रही है, किसी के भी बारे में उनको पता नहीं होता था। उनके देहांत के 1-2 हफ्ते पहले, उनकों उनके घर के आँगन में, पालतू कुत्तों के साथ देखा गया, जहाँ वह अकेली बडबडाती हुई, मिट्ठी खा रही थी। एक ऐसी स्त्री जिसने देव – धर्म, सारे रीति रीवाज़ बड़े शिद्दत से निभाये थे। पिछले दो सालों में, आनेवाले हर त्यौहार पर सिर्फ और सिर्फ उनकी आँखों में आँसू दिखे, जिनमें उनकी लाचारी और नसीब की बेरुखाई साफ नज़र आ रही थी।

मनुष्य अपनी पूरी जिंदगी, अलग - अलग लक्ष्यों का पीछा करते हुए भागता रहता है – फिर चाहे वह पढ़ाई हो, नौकरी हो, शादी हो या फिर बच्चे हो, लेकिन अंत में, उसके हाथ लगता क्या है ? इस दौड़ में, कई बार बूढ़े माता – पिता ही होते हैं, जो आपके लक्ष्य की ठोकर खा निचे गिर जाते हैं, और वहीं पड़े रह जाते हैं। जिन बच्चों को, इस दुनिया में लाने के लिए, उनको अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए, अपनी पूरी जिंदगी दाँव पर लगा दी जाती है, वहीं बच्चे आपको दरवाज़े पर रखे जानेवाले, पायदान की तरह बेफिक्री से रौंदकर चले जाते हैं।

आज उनका खाली पड़ा विरान घर, हर आने जानेवाले को इस बात का एहसास दिलाती रहती है कि, चार दिवारी को मकान कहा जाता है, लेकिन उसमें पनपनेवाले प्रेम से, अपनेपन से ही तो मकान घर बन जाता है। लेकिन रेणू के जीवन के आखिरी दिनों में, इस घर ने अपने रिश्ते, प्रेम, अपनेपन की निर्मम हत्या होती देखी, साथ ही, आस – पड़ोसवालों को भी अत्यंत भयानक रूप से जीवन की सच्चाई से रू-ब-रू करवाया।

भले ही, विश्व के किसी कोने में घटी, यह एक आम-सी घटना है, लेकिन यह आज, हर किसी को मजबूर कर रही है कि, एक बार, अपनी अंतरात्मा से जरूर पूछे – मेरा घर - घर है या सिर्फ मकान है?

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