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जलसमाधि... एक ऐसा कृत्य जहाँ जल में पहुँचकर जीवन के तार समाप्त हो जाते हैं। लेकिन ज्यादातर इस शब्द के आगे मनुष्य कानाम जुड़ा होता है, फिर चाहे यह कोई दुर्घटना हो या फिर आत्महत्या।

लेकिन आज यह जलसमाधि की कहानी, किसी इन्सान की ना होकर, गोवा के एक ऐसे गाँव की है जिसने गोवा के विकास में खुद को उसकी बुनियाद में दफ़न कर दिया लेकिन साल में एक बार ही सही अपने अस्तित्व का प्रमाण देने अवश्य प्रकट हो जाता है। इसी संदर्भ में पढ़ी हुई एक अज्ञात कवि की कविता की कुछ पंक्तियाँ अपना सिर उठा मेरा ध्यान अपनी ओर खींच रही थी....

गुलाब बनने को तैयार हैं सब
बरगद कौन बनना चाहता है
गुंबद बनने को तैयार हैं सब
नींव की ईंट कौन बनना चाहता है
वाह – वाही पाना चाहते हैं सब
त्याग कौन करना चाहता है ?
पता है सबको जो बन जायेगा बरगद
वह हिल न सकेगा अपनी जगह से
पता है सबको जो बनेगा नींव की ईंट
सब बढ़ जाएँगें उस पर चढ के
पता है सबको जो करेगा त्याग
स्वार्थ पूरे करेगें सब उससे।

सच है, गुबंद बनने की ख्वाहिश सबकी होती है... लेकिन नींव की ईट कोई नहीं बनना चाहता।

यह कहानी है, गोवा के विकास में नींव की ईट बने, सांगे तालुका में स्थित एक गाँव कुर्डी की....। एक ऐसा गाँव जो संपन्नता से परिपूर्ण था। जहाँ ज्यादातर गाँव के लोगों का व्यवसाय खेती पर निर्भर था। खेतीहर अपने जीवन में चाहे ही क्या – दो वक्त की रोटी और सिर के ऊपर छत। जितनी कम जरुरते उतना ही आनंदमय जीवन। जहआँ सभी धर्म समुदाय मिल – जुलकर रहते थे, जैसे दूध में शक्कर। आज वही सर्व संपन्न गाँव, अवशेषों के व्दारा ही क्यों ना हो, उसी पूर्व आनंद को पाने के लिए तरस रहा है।

1960 के दशक में, गोवा के पहले मुख्यमंत्री श्री. दयानंद बांदोडकर जी के नेतृत्व में, सलावली नदी पर बाँध निर्माण करने का आदेश जारी हुआ। इससे यह होनेवाला था कि, गोवा के बहुत बड़े को फिर कभी कमी नहीं होनेवाली थी।

भले ही, इस जलाशय के निर्माण से गोवा की एक बहुत बड़ी समस्या हल होनेवाली थी, लेकिन सांगे तालुका के दो गाँवों - कुर्डी और कुर्पे (जो आधा गाँव जलमग्न हुआ) के लिए, इसका बहुत बड़ा खामियाज़ा प्रतिक्षा कर रहा था। ये दोनों गाँव इस बाँध के निर्माण से सबसे ज्यादा प्रभावित होनेवाले थे...। ये दो गाँव, पूरी तरह जलमग्न होनेवाले थे। सन् 1971 के आस - पास इन दोनों गाँव के लगभग 450 परिवारों को वालंकिनी और वाडे में स्थानांतरित कर दिया गया था। ग्रस्त परिवारों को मुआवजे के रुप में 10,000 वर्ग मीटर कृषि भूमि सरकार के व्दारा प्रदान कर दी गई थी। इस कुर्डी गाँव में, कंदबा कालीन भगवान शिव को समर्पित एक मंदिर था, जिसे पत्थर -ब- पत्थर खंडित कर, उस हर एक पत्थर को क्रमानुसार अंकित कर, कुर्डी से लगभग 17 कि.मी. दूर स्थानांतरित कर दिया गया। वह कहते हैं ना... किसी चिज़ को नष्ट करने में सिर्फ एक क्षण काफी होता है, लेकिन उसके निर्माण में पूरी जिंदगी निकल जाती है। यहीं बात यहाँ भी देखने को मिली... इस मंदिर के पुनः निर्माण में लंबे 11 सालों का समय लगा।

आज हर साल अप्रैल – मई महीने के आस-पास जब बाँध का पानी कम हो जाता है तो मानो यह पूरा गाँव समाधि से उठ कर अपने अस्तित्व की अनुभूती सबको कराने के लिए उपस्थित हो जाता है। इसी दौरान, यहाँ के पूर्व रहिवासी एक साथ आकर, यहाँ के प्रसिध्द मंदिर श्री सोमनाथ का उत्सव धूमधाम से मनाते हैं। यह शायद, एक मात्र तरीका है, जिससे यहाँ के बांशिंदे अपनी इस भूमि से अपना रिश्ता बनाए रख सकते हैं।

ये तो रही सारी बुनियादी बातें लेकिन इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता ..... ऐसी जगह जहाँ आपका जन्म हुआ हो और ना जाने आपके जीवन के कितने ही साल आपने वहाँ बिताए हो.... आपके बचपन की सारी मधूर यादें यहाँ के कण – कण में बसीं हो...जहाँ आपके रोज़ी – रोटी निर्भर हो.... आपके जीवन के हर अच्छे – बुरे पहलुओं का इस जगह का हर जर्रा साक्षी रह हो और अचानक सरकारी हुक्म के चलते आपको ये सबकुछ पीछे छोड़कर जाना पड़ा तो.... सिर्फ यह विचार ही आपकी रूह दहलाने के काफी है। ये करना कभी भी आसान नहीं होगा.... चाहे यह 80 के दशक की बात हो या फिर आज के आधुनिक युग की। यह पीछे छूटना, ऐसा नहीं था कि, जब चाहा तब वहाँ जाकर उस जगह को महसूस कर सकते हैं... ये पीछे छूटना तो ऐसा था कि वह जगह हमेशा के लिए पानी समाहित हो जाना।

सईद सोहरावर्दी की कुछ पंक्तियाँ हैं –

कल जो पीछे छूट गया
सपने मेरे लूट गया
आँख से कोई आसूँ टपका
या कोई छाला फूट गया...

कुर्डी गाँववासियों की स्थिति के लिए यह पंक्तियाँ उचित बैठतीं हैं। यह जल समाधि सिर्फ एक गाँव की नहीं बल्कि उस समय यहाँ रहनेवाले 450 परिवारों के भावनाओं, उनकी संस्कृति, उनके त्यौहार, यहाँ की सामाजिक एकता इन सबकी भी थी। लेकिन इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि उस ग्रस्त पीढ़ी के मन में आज भी वहीं पुराना, सर्व संपन्न कुर्डी गाँव अनंत काल तक जीवित रहेगा !!  

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