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आचार्य मम्मट के अनुसार,

तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि

अर्थात दोष रहित गुण सहित और कभी कबार अलंकृत शब्द और अर्थमयी रचना काव्य कहलाती है।

यह सारे गुण कविता की आत्मा माने जा सकते हैं लेकिन किसी भी कविता को साकार रूप उसका विषय दे देता है कविता ऐसे किसी विषय को लेकर आगे बढ़ती है जो तो उस काव्य के शब्दों में अलग ही जान पनप बन जाती है।

भले ही कोंकणी भाषी लोगों की संख्या, सिर्फ कुछ प्रतिशत ही क्यों ना हो, लेकिन कोंकणी साहित्य में, ऐसे अनेक कवि तथा लेखक थे, जिनके अप्रतिम परिश्रम के कारण कोंकणी साहित्य को बुलंदी पर खड़ा किया। आज आपके समक्ष सिर्फ कुछ कविताओं व्दारा इसकी झलक आपको दिखाने का प्रयत्न किया गया है।

कवि शणै गोंयबाब कोंकणी साहित्य के जन्मदाता माने जा जाते हैं। उनके साहित्य से ही कोंकणी साहित्य की शुरुआत मानी जाती है। यह वह समय था जब कविताओं द्वारा कवि अपने शब्दों के माध्यम से गोवा की अद्भूत सुंदरता को कागज़ पर उतारा करते थे। कवि शणै गोंयबाब ऐसी ही एक कविता है म्हजे गोंय जिसमें वे गोवा की सुंदरता का सचित्र बखान करते हैं।

म्हजे गोंय

- कवि शणै गोंयबाब

गोड म्हजें गोंय ! सुंदर म्हजें गोंय !
पुर्विल्ले नामनेचें, चड मोट्या भाग्याचें,
उंच माथे कोंकणाचें
हें म्हजें गोंय !

निजाचे अर्पुबायेचें, इंद्रनीळ मळबाचें,
भांगराच्या ओताचें, रुप्याच्या चांदन्याचें
हें म्हजें गोंय !

पथीक उदका- वा-याचें, चकचयाळ पिकावळींचें,
सोबीत फुलां – फळांचें, शिटूक सावदां – सवण्याचें,
हें म्हजें गोंय !

उजळ संस्कृतायेचें, खरेल्या कुळवंतांचें
उदार मनाच्या लोकांचें, पाटांगड्या विव्दानांचें,
बळिष्ट झुजा-याचें, बुदवंत राजकर्ण्याचें,
वावराड्या कामवटांचें, कर्तुत्वी मनशांचें,
हें म्हजें गोंय !

धर्तरेवेलो सर्ग, हें म्हजें गोंय !
सासणाचें सुख दिणें, हें म्हजें गोंय !

कवि कहते हैं कि, गोवा ऐसा प्रदेश है जिसका नाम अजरामार है। जिसका भाग्य बुलंद है। कोकण प्रदेश का भाल है मेरा गोवा। हर गोवावासी का निजी, अति प्रिय, जिसके आसमान में इंद्रधनुषी रंग खिलखिलाते हो ऐसा मेरा गोवा है। जहाँ जल और वायु हाथों में हाथ डाले क्रीड़ा करते हो, जो यहाँ आनेवाले हर यात्री के लिए खुशियों का पिटारा खोल देते हो, जो धन-धान्य से संपन्न हो ऐसा मेरा गोवा है। यहाँ की अलौकिक संस्कृति, यहाँ का उदार प्रवृत्ति वाला जन – सागर, यहाँ के महानतम् विद्वान, यहाँ के अति दृढ़ निश्चयी, बलवान सेनानी, बुध्दिशाली राजनेता तथा अपने संघर्षमय जीवन के साथ, गोवा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले श्रमिक वर्ग और कर्तव्य दक्ष मानव से ही तो मेरा गोवा सीना ताने मजबूत खड़ा है। कवि कहते हैं गोवावासियों के लिए गोवा को भूतल का स्वर्ग है, जहाँ पर आजीवन सुख स्त्रोत बहता रहता है।

जब पूरे भारत पर अंग्रेजों का शासन था तब गोवा पर पुर्तुगाली सत्ता स्थापित थी। भारत तो सन् 1946 में स्वतंत्र हो चुका था, लेकिन गोवा को और अधिक चौदह साल का पुर्तगाली सत्ता का कड़ा कारावास भुगतना पड़ा। इस दौरान ऐसा नहीं था कि, गोवावासियों द्वारा इस क्रूर पुर्तुगाली सत्ता को उखाड़ फेंकने का कोई भी प्रयत्न ना हुआ हो, लेकिन हर बार छल कपट या फिर जोर जबरदस्ती से उनका प्रयोजन का नाकामयाब हो जाता था।

लेकिन फिर इस गोवा की भूमि पर कदम पड़े डॉ राम मनोहर लोहिया के। वैसे तो लोहियाजी गोवा में विश्राम करने के लिए आए थे, लेकिन यहाँ की स्थिति को देखकर, गोवावासियों की हालत देखकर, उन्होंने यहाँ भी स्वतंत्रता युध्द लड़ने का निश्चय कर दिया। उन्होंने सारे पुर्तुगाली नियमों को ठोकर मारते हुए, मडगांव के मैदान में 18 जून 1946 को एक सभा का आयोजन किया। उनकी एक पुकार पर, सारे गोवावासी अपने मन के भय को खत्म करते हुए इस सभा में पहुँचे हालांकि, इस सभा में कोई भाषण बाजी तो नहीं हुई क्योंकि उससे पहले ही सब लोगों को गिरफ्तार कर दिया गया था। लेकिन लोहियाजी के इस एक प्रयत्न ने गोवावासियों के मन में पुर्तुगाली सत्ता के विरुध्द, जो क्रोधाग्नि ठंडी पड़ने लगी थी, उसे भड़काने के लिए एक चिंगारी का काम किया था। लेकिन फिर जब यह अग्नि ठंडी पड़ने लगी, तब यहाँ के जन मानस को उस दिन को याद करवाते हुए लिखते हैं –

अठरा जून

- कवि मनोहरराय सरदेसाय

उदक लेगीत जाल्लें रगत
आनी रगत जाल्लें हून
भावा, तुका याद आसा
अठरा जून ?

बंदखणीचे दुखी चिरे
नवे आशेन धडधडलॉ
फिरंग्याले मस्तें बंदेर
थरथरत समजलें
वावझडींत वेतलें म्हणून
पिंजून, पिंजून........
भावा, तुका याद आसा
अठरा जून ?

मंगळाराचो आसलो दीस
पावस नेटान झडटालो
आंब्या – मुळांत गावड्या पोर
कुडकुडत रडटालो
लोखणाचो आयलो पुरुस
कोणाक खबर खंय साकून
ताज्या शिंवा-उल्यान गेलीं
आमची भुजां शिंवशिंवून
थोरां – पोरां आयलीं धांवत
कोणाक खबर खंय साकून
जुलमाच्या तुबकांतल्यान
उज्या – गुळे गेले सुटून
रगताची ऊब मेळून
भूंय आमची जाली हून
भावा, तुका याद आसा
अठरा जून ?

सोडणुकीचो आयलो दीस
उठून उबो रावलो मनीस
सगले पास पडले तुटून
भावा, तुका याद आसा
अठरा जून ?

कितलें अशे आयले गेले
अठरा जून !

आंब्या – मुळांत कुडकुडटा
गावड्याचो पोर अजून
भांगराचें गोंय आमचें
कितलें आसा पयस अजून !
मळबाचो माटव मोडून
कुपां फोडून, गडगडून
जोगलाच्या झगझगांत
घिस्स करून झगझगूम
दडकेवरी लोटून, फुटून
येवंदी परतो अठरा जून !

त्या दिसा उगडासान
हड्डें म्हजें पेट्टा अजून
भावा, तुका याद आसा
अठरा जून ?

प्रस्तुत कविता में कवि अपने पाठकों से प्रश्न पूछते हैं, भाई, क्या तुम्हें याद है 18 जून ? जिस दिन, गोवावासियों के खून में भी उबाल आ गया था। कारागृह के दुखी पत्थर जो अपने ही भूमिपुत्रों के साथ होते अत्याचार लाचार होकर देखते थे, उस दिन, उनके मन में एक नई आशा खिल उठी थी। उस दिन पुर्तगाली सत्ता को भी, इस बात का आभास हो गया था कि, इस आँधी में, उनके सारे अरमान चूर-चूर हो जाएँगे। अपना भयावह भविष्य के बारे में सोचकर, वे थरथर काँपने लगे थे। वह दिन मंगलवार का था, जब तेज बारिश हो रही थी और आम के पेड़ के नीचे एक छोटा सा बालक ठंड से ठिठुरता हुआ रो रहा था। गौर करने वाली बात यह है कि यहाँ पर उल्लेख आया है, ‘लोखणाचो पुरुस’ इसका शाब्दिक अर्थ है ‘लोहपुरुष’। यहाँ कवि ने डॉ. राममनोहर लोहिया की ओर संकेत किया है। कवि कहते हैं कि, पता नहीं कहाँ से वे यहाँ आए, लेकिन उनकी एक पुकार ने सबके मन में अनोखी उर्जा जाग उठी थी। बड़े - बूढ़े बिना किसी बात की चिंता किए, उनकी एक पुकार पर दौड़े चले आए। ऐसा लग रहा था मानो, अत्याचार की तोप से आज आग के गोले छूट गए थे। आज साढ़े चारसौ सालों के जुल्म और अत्याचारों को सहन करने के बाद, आनेवाली अद्भूत आजादी का आगाज हो चुका था। सारे पाश, सारी बेड़ियाँ आज टूट कर बिखर गई थी।

लेकिन उस 18 जून के बाद, अनेक 18 जून आए और चले गए। आज भी, वह बच्चा आम के पीछे नीचे ठंड में ठिठुर रहा है। यह सोच कर कि, स्वर्णिम गोवा का लक्ष्य तो अभी भी दूर है। उसकी यही इच्छा है कि, पुनः उसी प्रकार का से, आसमान में तेज गर्जना कर, कौधती बिजली की तरह अलौकिक शक्ति लेकर वह 18 जून का सूरज फिर से उग आए। फिर से इन पुर्तुगालियों के विरुध्द लड़ने की ताकत, लड़ने का दृढ़ निश्चय इन गोवा वासियों के मन में आ जाए। कवि कहते हैं कि, आज भी जब 18 जून को याद करता हूँ, तो मेरे ह्रदय की क्रोधाग्नि भडक उठती है। लेकिन क्या तुम्हें याद है वह 18 जून ?

अनेक सालों के गुलामी के बाद, गोवा स्वतंत्र भारत का हिस्सा बन चुका था। जब हमारे हाथों में स्वतंत्र प्रदेश की बागडोर आई, तब ‘लोकतंत्र’ गोवा के सिंहासन पर आसीन हो चुका था। लोकतंत्र अर्थात, For the people, By the people, Of the people जहाँ पर, जनता ही राजा थी। यह सब देख सारी प्रजा में खुशी की लहर फैली तो थी, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतने लगा लोगों के मन में खुशी की जगह अराजकता अपना आसन जमाने लगी थी। प्रस्तुत कविता में, कवि मनोहरराय सरदेसाई, यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि, ‘लोकशाय’ यानी लोकतंत्र का अर्थ क्या है और धीरे-धीरे इस आज़ाद प्रदेश में लोकतंत्र क्या अर्थ धारण कररहा है।

ही लोकशाय

- कवि मनोहरराय सरदेसाई

पांडूलो पाडो
गोंदूल्या गाड्याक
काटूलो कोंडो
आन्तूच्या आड्याक
लाद्रूच्या शेतांत
पेद्रूची गाय
ही लोकशाय.

चंद्रयालो चेडो
मर्त्याले माड पाडटा
रीतालो रेडो
व्हाजाली वोंय मोडटा
तात्याच्या तपल्यांत
दादाची दांय
ही लोकशाय.

सगलें जालें तुजेंच राज
तुजो चांफो, तुजी काज
चवरां गळय, पानां झडय
जाय तितलीं फुलां फाराय
ही लोकशाय.

वांकडो चल, कसोय पळ
गाडी तुजी कशीय चलय
झाडार उडय
घरार चडय
ना जाल्यार मदींच थाराय
ही लोकशाय.

आयले काळे, गेले धवे
फाटलें वचून आयलें नवें
पेद्रूचो जालो पिटर
लित्राचो जालो लिटर
सेवेंज वचून आयली बियर
ग्रावाद वचून आयलो टाय
ही लोकशाय.

रेक्रेमेंत वचून आतां
आयलें अप्लिकेशन
कोर्रूप्सांव नाच जालें
आयलें Corruption
Pela nacao चें नांवूच ना
आता सगलें ‘For the Nation’
‘Adeus’ गेलो,
सगले ताका
करया “Bye Bye”
ही लोकशाय.

मोडक्या खांब्यार नवो पूल
फुटक्या गुंड्यार नवी चूल
पोरण्या पाटार नवो मानाय
ही लोकशाय.

शेत रोयता ?
फॉर्म भर
भात विकता ?
फॉर्म भर
भीक मागता ?
फॉर्म भर
खंयचो तूं ! खंय रावता?
खंय न्हिदता खंय जेवता ?
कोण तुजो आजो ?
कोण तुजो पणजो ?
कितली ताजी पिराय ?
ही लोकशाय.

हें बरय, तें छाप
हें टायप, तें टायप
टक टक, झर झर
कागदांचे जाले दोंगर
वझ-यांनीं ओत्ता शाय
ही लोकशाय.

ऐक ऑफिसर धा कारकून
धा कारकून वीस चाकर
वीस चाकरांक तीस शिपाय
ही लोकशाय.

सेलाद फोलीर पिकता भात
तरीय लोक काडटात उपास
हें अशें जावंचें कशें ?
म्हाका बाबा कळना कांय
ही लोकशाय.

साकर ना ? बरें जालें
साकर खाल्यार गोडें जाता
तांदूळ ना ? बेस्स बरें
भातें मारल्यार सुस्ती येता
सगल्या परस जिवाक बरो
किरायत्याचो कोडू कसाय
ही लोकशाय.

क-हाडची गाडवां
मडगांवच्या रस्त्यार
सरकारी खोजनो
फुलूच्या खुस्तार
खर्चाच्या खोर्णीत
लोकांची ल्हाय
ही लोकशाय.

नळ आयले, उदक ना
दिवे आयले, विजूच ना
दांत आयले, चणेच ना
फुटलो लाटण
पुरली बांय
ही लोकशाय.

सगलें गिन्यान दवर कुशीक
हुनहुनीत गळी शीक
“You bastard, dirty dog”
“मालक्रियाद, दितलो फोग”
“साला, बदमाश कोण रे तो ?”
“तुजो पाय”
ही लोकशाय.

हड्डें फुलय, भुजां हालय
किदेंय उलय, मोट्यान उलय
आंबूळ मुठी, मेजां धोडाय
ही लोकशाय.

बारा बोडांक, बारा मतां
बारा हातार, बारा खतां
दोन बोंडे, दोन आटकां
दोन वांजां, दोन कुस्कां
बाकी सगले उदकाशिवाय
ही लोकशाय.

हांसपी ओंठ
रितीं बोडां
बंद कोट
उक्तीं तोंडां
आनी सदांच हात मुखार
तुमची मतां आमकां जाय
ही लोकशाय.

जाका धरूंक येना सत्री
तो जाता राखणमंत्री
जाणे जल्मांत चिरली ना शिरी
तो जाता शिक्षणमंत्री
जो चलयता कायद्याचें खात
तो फटकि-यांचो पाय
ही लोकशाय.

वोगी बसून मेळना कांय
वच रस्त्यार किंळची मार
धा जाणांक धरून हाड
सात – आठ गाडयो मोड
दुकानांच्यो कंवच्यो फोड
चारूय घरां उजो लाय
ही लोकशाय.

लोकूच जंय पातशाय
ती लोकशाय.

सगल्यांनी काडचें दूद
सगल्यांनी हाडचो उजो
सगल्यांनी मारची फूंक
थोड्यांनीच खांवची साय
ही लोकशाय.

अर्दो वांटो सरकाराक
तिसरो वांटो मामलेदाराक
सवो वांटो भाटकाराक
काडून, काडून उल्लो कुंडो
तोच आतां तोंडाक लाय
ही लोकशाय.

कैद गेली आयली फांशी
आता तरी जालो खोशी ?
आतां गळ्याक फांस लाय
फुक्या सवाय
ही लोकशाय.

बांदोडेचो दोवलो
शिरोडेची कायल
कोणाक जाय धुमको, चिमटो ?
हाय !
ही लोकशाय.

कवि कहते हैं जहाँ कुछ अपना पराया ना हो, सब कुछ मिल बाँटकर एक दूसरे से अपने सुख-दुख साँझा करते हो, जहाँ जाति – धर्म के भेदभाव भूलकर, एक दूसरे को सम्मान देते हुए आगे बढ़ना हो, जहाँ मानव धर्म ही सर्व व्यापी हो उसे लोकतंत्र कहते है। कवि यह भी कहते हैं कि, इस स्वतंत्र प्रदेश में, तुम्हारा ही तो सब कुछ है। राज्य भी तुम्हारा और प्रजा भी तुम्हारी। यहाँ चाहे तुम जो मनमर्जी कर लो, कोई भी तुम्हें पूछनेवाला नहीं है, क्योंकि यह ‘लोकतंत्र’ है। कवि कहते हैं कि, जो पुराना था, वह सब कुछ नए में तब्दील हो चुका है। जहाँ गोरों का राज्य था उनकी जगह अब कालों ने ली है। यहाँ पेद्रू अब पिटर बन चुका है लित्र आज लिटर बन चुका है। ‘सेवेंज’ की जगह आज ‘बीयर’ ने ली है। ‘ग्रावाद’ की जगह आज ‘टाइ’ ने ली है। जो भी पुराना था वह सब कुछ नए में तब्दील हो रहा है क्योंकि यह लोकतंत्र है।

इस लोकतांत्रिक प्रदेश में, ‘रेक्रेमेंत’ की जगह ‘एप्लीकेशन’ आ चुका है। ‘कोर्रूप्सांव’ का नाम बदलकर अब Corruption करेक्शन हो चुका है। Pela nacao के बदले में For the Nation आ चुका है। Adeus तो कब का चला गया, अब उसकी जगह Bye - Bye ने ली है, क्योंकि यह लोकतंत्र है।

इस लोकतंत्र में भ्रष्टाचार के छोटे-मोटे रूप दिखाते हुए कवि कहते हैं की टूटे-फूटे खंभों पर नया पुल बाँधा जाता है, फूटे हुए पत्थरों पर चूल्हा जलाया जाता है। इस नए लोकतंत्र में सामान्य व्यक्ति के लिए अनेक प्रश्न पूछे जाते हैं – “खेत जोतना है ?” तो फॉर्म भरो “गेहूं बेचना है ?” तो फॉर्म भरो यहाँ तक कि, भीख भी माँगनी हो, तो भी फॉर्म भरो। तुम कहाँ रहते हो ? कहाँ सोते हो ? कहाँ खाना खाते हो ? तुम्हारे दादा, परदादा कौन हैं ? उनकी उम्र क्या है ? इन सारे प्रश्नों में ही उलझा हुआ है यह लोकतंत्र।

इस लोकतंत्र में सब कुछ कागजों में बंद है। यहाँ लिखना है, वहाँ छपवाना है, यहाँ कुछ टाइप करना है, यह करते करते हैं कागजों का माने टीला ही बन चुका है क्योंकि यह नया लोकतंत्र है। इस नई लोकतंत्र में एक ऑफिसर के पीछे दस कारकुन काम करते हैं और उन दस कारकूनों के पीछे बीस नौकर रहते हैं। उन बीस नौकरों के पीछे तीस चौकीदार रहते हैं, यही लोकतंत्र है। नए लोकतंत्र में जो खुद अनाज उगाता है, वह भूखे पेट सोता है यह कैसा गणित है ? किसी को कुछ मालूम नहीं है।

कवि कहते हैं कि लोकतंत्र में हर कमी के पीछे, अच्छी वजह है जैसे “शक्कर नहीं है ? तो अच्छा हुआ नहीं तो डायबिटीज हो जाती है।” “अनाज नहीं है ? अच्छा हुआ वरना तुम आलसी बन जाओगे।” इस सबसे अच्छा तो कड़वा काढ़ा ही है क्योंकि यह नया लोकतंत्र है। यहाँ पर हर किसी के घर में नल तो है, लेकिन उन नलों में पानी बिल्कुल भी नहीं आता। घरों में बल्ब तो हैं लेकिन बिजली ही गायब क्योंकि यह नया लोकतंत्र है। कवि कहते हैं कि, इस नए लोकतंत्र में, आपके ज्ञान की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है। तुम्हारा जो कुछ भी ज्ञान हो उसे सबकुछ अलग रखकर, अंग्रेजी की कुछ गालियां सीखना फायदेमंद होगा ताकि तुम काम करने से बच सको और सामने वाले व्यक्ति को गालियां देकर उसे वहाँ से भगा सकओ यह नया लोकतंत्र है। कवि के अनुसार, इस नये लोकतंत्र में सिर्फ चुनाव के वक्त ही मंत्री भीख माँगने के लिए आते हैं, वरना जैसे ही वह कुर्सी पर आसीन हो जाते हैं वह किसी को नहीं पहचानते। चुनाव के नतीजों में बारह नमूनों को बारह वोट मिलते हैं। ऐसा कैसा है हमारा यह लोकतंत्र जहाँ जो व्यक्ति सीधी तरह से छतरी भी ना पकड़ सकता, वह कैसे बनता है रक्षा मंत्री ? जिसने कभी पाठशाला में जाकर एक रेखा भी ना खींची हो, वह बन जाता है यहाँ का शिक्षा मंत्री ? जो आज बना बैठा है कानून मंत्री, वह असल में है झूठ बोलनेवालों का बाप। शायद यही है यह नया लोकतंत्र।

कवि यहाँ तक कह देते हैं, इस लोकतंत्र में लोगों का आक्रोश इतना है कि, उनकी सोच यह है कि, घर बैठे कुछ नहीं मिलता इसलिए रास्ते पर चिल्लाते हुए जाना है, कुछ गुंडों को इकट्ठा कर रास्तों पर खड़ी गाड़ियों को नुकसान पहुँचाते हुए कुछ दुकानों में तोड़फोड़ करना है। कुछ घरों को आग लगाते हुए अपने विचारों को सबके समक्ष रखना अच्छी बात समझते हैं। इस लोकतंत्र की खासियत यह थी कि, दूध तो सब निकालते हैं, उसे चूल्हे पर रख फूँकने को कार्य सब करते हैं लेकिन दूध की मलाई सिर्फ एक अकेला खाता है। अर्थात मेहनत करे सभी लेकिन फल मिले सिर्फ एक को। इस नए लोकतंत्र में, भ्रष्टाचार यहाँ तक पहुँच चुका है कि, आधा भाग सरकार को जाता है, तीसरा भाग तहसीलदार को, छठा भाग जमींदार को और इस सब के बाद, जो कुछ भूसा बचता है वह सिर्फ मुँह पर लगाने के लिए काम आ जाता है क्योंकि यह नया लोकतंत्र है। आजीवन कारावास तो चला गया लेकिन उसके बदले में आ गई है फाँसी। इसके लिए कारावास में जाने की जरूरत नहीं है, इस नए लोकतंत्र की दशा को देखते हुए यह फाँसी का फंदा खुद अपने गले में डाल देना यही है नया लोकतंत्र।

ये मेरी ओर से एक छोटा सा प्रयत्न है, आपको हमारी कोंकणी साहित्य से कुछ कविताओं के व्दारा गोवा का सौंदर्य, उसके राजनैतिक पहलू को आपके समक्ष रख सकूँ।

धन्यवाद !

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