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“बचपन के जुगनू फिर चमक उठे
जब पलटे मैनें कुछ यादों के पन्ने
खेल वो सारे बचपन के
अपने आप में थे अनमोल नगीने।“

सच में, हम हमारे बचपन के बारे में सोचते हैं, तब एक ही बात हमारे ज़ेहन में घुमने लगती है, वह है- बचपन के वो खेल जिसमें एक अपनापन था। जिन्हें जितने पर सारे दोस्त खुशी मनाते वहीं यदि हार भी जाए, तो प्रतिव्दंदी खिलाड़ियों के साथ बहुत लड़ते थे। हमारे पीढ़ी के किसी भी व्यक्ति की बचपन की यादें और इन खेलों की यादें हाथ मिलाए चलते हैं।

आज के बच्चों को जब दिन – रात भ्रमणध्वनियों पर विभिन्न खेलों में मग्न हुए, सोशल मीडिया पर जड़े हुऐ देखती हूँ, तो मेरा भारी होने लगता है। जिस प्रकार, खाने पर मक्खियाँ भिनभिनाकर बैठतीं हैं, उसी प्रकार, नयी पीढ़ी मोबाइल पर पड़े रहते हैं। आज के बच्चों को, मोबाइल पर उपलब्ध सभी खेलों की, खेलने के तरीकोँ होती है लेकिन, इनसे मैदानी खेलों के बारे में पूछों तो उनको नानी याद आ जाती है। कभी कभी इनको देखकर ऐसा लगता है कि मानो इनको बचपन क्या है ? यह पता ही नहीं है। मिट्टी में खेलना, जगली मेवों का आस्वाद लेना क्य होता है, ये इन बेचारों को पता तक नहीं है।

वैसे बताने को जाए तो, वो बहुत से ऐसे खेल थे जो समय के साथ, वीडियो गेम वैगरह के साये में इतिहास ज़मा हो चुके है। आज तो सिर्फ कुछ लोगों की यादों की परतों में पीछे,, ये कुछ खेल आज भी जिंदा है।

मैं गोवा की रहिवासी हूँ। हमारा गोवा एक पर्यटन स्थल के रूप में जाना जाता है। यहाँ के समुद्र तट, सुनहरी रेत, नारियल के पेड़ों की कतारे सबको लुभातीं हैं। अपनी ओर खींच लेती हैं। लेकिन गोवा में बहुत सी ऐसी चीजें हैं, जो पर्यटकों की नज़रों से दूर है। यहाँ की संस्कृति, त्यौहार, आदि। इनमें हमारे पारंपारिक खेलों की भी गणना की जा सकती है। हमारे खेल तोणयोबाल, गड्ड्यांनी, खांब्यांनी, अटक-मटक, लगोरी, कांगानी, धरच्यानीं, लिपच्यानीं........। जानती हूँ...... आपके लिए ये नाम अतरंगी लग रहे होगें। किसी भी गोवावासी के लिए ये ज़मीन में गड़े किसी खज़ाने से कम नहीं है।

भले ही, ये खेल बहुत सारे है, लेकिन आज हम कुछ ही खेलों के बारे में जानेंगे।

1. अटक – मटक

इसमें खिलाड़ियों की कोई सीमित संख्या नहीं होती। इस खेल में जितने भी खिलाड़ी होते हैं, वे गोलाकार बैठते हैं और अपनी ऊँगलियाँ सामने रख देते हैं। और इनमें से एक खिलाड़ी, सारे खिलाड़ियों की ऊँगलियों पर ऊँगली रखते हुए, खेल का गीत गाते हुए आगे बढ़ता है। वह गीत है-

“अटक - मटक चोवळी चटक
चोवळी झाली गोड – गोड
जिबेला आला फोड – फोड
जिबेचा फोड फुटेना
डॉक्टर मामा उठेना
जिबेचा फोड फुटला
डॉक्टर मामा उठला.”

और जिस किसी ऊँगली पर आकर यह गाना रूकता है, उस खिलाड़ी की उस ऊँगली को अंदर की तरफ मोड़कर रखने को कहा जाता है अर्थात, वह ऊँगली खेल से बाहर। इसी प्रकार, यह गीत गाकर, एक एक कर, सारी ऊँगलियाँ खेल से बाहर हो जातीं हैं और खेल के अंत तक जिस किसी की ऊँगली बच जाती है, वह खेल का विजेता घोषित कर दिया जाता है।

2. फातरांनीं (पत्थर)

इस खेल में पाँच छोटे -छोटे पत्थर एक कतार में रख दिए जाते हैं। खिलाड़ी को एक पत्थर हवा में उछालना होता है और उछालते हुए, खिलाड़ी को ज़मीन पर रखे पत्थर को झट से हाथ में लेकर, हवा में उछाले गए पत्थर को भी पकड़ना होता है। इसी प्रकार, आपको पाँचों पत्थरों को एक पत्थर हवा में उडाते हुए अपने हाथों में पकड़ लेना है। और आखिर में, पाँचों पत्थरों को एक साथ हवा में उछालते हुए, उसी हाथ से लेकिन हथेली को जमीन की तरफ रखते हए सारे पत्थरों को उल्टे हाथ पर पकड़ना होता हे। यदि आप बीच में कहीं चूक जाते हैं, तो वापस से शुरू करना होता है।

3. खांब्यानीं (खंभे)

इस खेल में भी खिलाड़ियों की कोई निश्चित संख्या नहीं होती है। इस खेल में, वह जगह चुनी जाती है, जहाँ बहुत सारे खंभे हो। खिलाडियों को एक एक खंभा लिए खड़ा होना है। और बीच – बीच खिलाड़ियों को अपने अपने खंभे छोड़कर दूसरे खंभे को पकड़ने के लिए भागना होता है। अर्थात् खिलाड़ियों को अपनी जगह बदलती रहनी होगी। इस बीच एक खिलाड़ी, इन खिलाड़ियों को पकड़ने के लिए तत्पर रहता है। जगह बदलते वक्त, यदि खिलाड़ी दूसरे को पकड़ने से पहले, पकड़ने वाले खिलाड़ी के हाथ लग जाता है, तो फिर उस खिलाड़ी को बाकियों को पकड़ना होता है।

4. धरच्यानीं (पकडम पकडाई)

इस खेल में भी खिलाड़ियों की कोई निश्चित संख्या नहीं होती है। इस खेल में, सबसे पहले सारे खिलाड़ी गोलाकार खड़े हो जाते हैं और एक 10... 20... 30... 40….. 50.... 60.... 70.... 80..... 90.... 100. संख्याएँ बोली जाती हैं और जिस किसी पर सौ की संख्या आ जाती है, उस खिलाड़ी को उस गोलाकार के बाहर खड़े रहना होता है। इस प्रकार, एक एक सारे खिलाड़ी गोलाकार के बाहर खड़े हो जाते हैं और जो एक खिलाड़ी बच जाता है, उसको भागते हुए, उन खिलाड़ियों को पकड़ना होता है। पकड़ने वाला खिलाड़ी, जिस किसी खिलाड़ी को पकड़ लेता है, तुरंत ही उस दूसरे खिलाड़ी पर बाकी खिलाड़ियों को पकड़ने की जिम्मेदारी आ जाती है।

ऐसे अनेक खेल हैं, जिनमें सिर्फ मैदानी खेल ही नहीं बल्कि वह खेल भी शामिल थे जो घर में बैठकर खेले जाते थे; खासकर तब, जब बारिश के चलते बच्चे बाहर नहीं जा सकते थे। ये खेल, अपने समय में, बच्चों में स्फुर्ति बनाए रखने में जिम्मेदार थे। इतना ही नहीं, बचपन में ही, ‘टीम वर्क’ के सही मायने में सिखाया करते थे। आज इनकी जगह, अब अनेक विद्युत उपकरणों के खेलों ने ली है। बच्चे खाना पीना सबकुछ भूल कर इनमें डूबे रहते हैं। इन खेलों में ना ही उनका शारीरिक विकास होता है और ना ही उनका मानसिक विकास हो पाता है। बस, एक ही जग पर बैठे – बैठे फूल जाते हैं।

पुराने जमाने में, हमारे दादा, परदादा, नानी, वैगरह हमेशा कहा करते थे कि हमारे नाती- पोतों को देखकर हम अपने बचपन को वापस जीते हैं। लेकिन आज की इस पीढ़ी को देखकर, शायद पुरानी पीढ़ी के सामने अफसोस करने के अलावा और कोई चारा नहीं रहेगा।

धन्यवाद !!

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