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हर कोई चाहता
इस संसार में कोई तो हो अपना,
लेकिन संभलकर ज़रा.....
अपनेपन से बड़ी ना कोई मिथ्या यहाँ।
ये तेज़ घूमती है दुनियाँ,
इस्तेमाल करो और फेंको का
ही नारा चलता यहाँ।

चाहा दोस्ती का एक
नाता सुहाना,
जैसे हो कृष्ण और सुदामा।
ह्रदय भी जिसके समक्ष व्यक्त होता,
किसी बंदिशों के बिना।
लेकिन खबरदार ........
दोस्ती से बड़ी ना की मिथ्या यहाँ।
मतलब के अनुसार चलती यह दुनियाँ,
रुई से भी नाजुक यह रिश्ता।

थामे एक -दूसरे का हाथ यहाँ
संकटों क करना था सामना,
लेकिन आँखें खोल ज़रा.......
सहारे के नाम पर
बेची – खरीदी जाती आपकी भावनाएँ,
कौड़ियों के दाम
भरोसे बड़ी ना कोई मिथ्या यहाँ।
हर कोई खड़ा यहाँ
शुभचिंतक का नकाब पहने।

ईश्वर की सबसे बड़ी निर्मिती है मनुष्य,
सर्वगुण संपन्न, परिपूर्ण।
लेकिन सोच ले ज़रा........
यह बनकर रह गया,
सिर्फ हाड़ – मांस का पुतला।
इन्सानियत से बड़ी ना कोई मिथ्या यहाँ।
दिख जाते यहाँ अनेक,
पत्थर इन्सानी ढ़ाँचों के।

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