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ईश्वर निर्मित इस सृष्टि में, लाखों-करोड़ों योनियों में, इंसान ही एक ऐसा प्राणी है जो अपना भला बुरा सोच सकता है। अपने निर्णय खुद से ले सकता है। ईश्वर ने उसे, असामान्य बुध्दि से नवाजा है। भारत विभिन्न संस्कृति, प्रथाओं का देश है। यहाँ हर समाज के अपने रीति रिवाज़ हैं तथा अपने निषेध भी हैं, जिनका भंग करना किसी भी समाज में, हमेशा से अमान्य रहा है। यहाँ तक कि, इनके बारे में बात करना भी गवारा नहीं। उदाहरण के लिए यदि देखा जाए तो, भारत में अक्सर, प्रसिध्दि के तख्ते पर, बड़ी मात्रा में, पुरुषों के नाम साथ, कुछ सिर्फ गिनी चुनी स्त्रियों के ही नाम देखे जा सकते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि, इस समाज में एक स्त्री ने कभी काम किया ही नहीं है। हर एक क्षेत्र में, स्त्रियों ने डंके की चोट पर, अपना लोहा मनवाया है, जिसको सिर्फ महिला दिवस के दिन दिल खोलकर याद किया जाता है। क्योंकि हमारे समाज के नियमों के अनुसार, एक स्त्री, कोई बड़ा काम करने में सक्षम नहीं होती तथी उसकी प्रगति के बारे में, बातचीत करना तक व्यर्थ में समय की बर्बादी मानी जाती है। सामान्य तौर पर, यदि देखा जाए तो, एक स्त्री का जीवन अपने आप में एक सामाजिक निषेधों से घिरा हुआ खिलौना है। ये बेड़ियाँ, उसके जन्म के साथ, एक बार जो उसका हाथ थाम लेतीं हैं, तो उसके जीवन भर, उसका साया बनकर घूमती रहती हैं और उसकी मृत्यु के बाद ही उसका दामन छोड़ देती हैं।

क्या सच में लक्ष्मी?

यदि घर में, माता लक्ष्मी का आगमन हो तो मनुष्य के चेहरे पर असीम खुशी देखी जा सकती है। वह खुद को खुशनसीब समझता है। लेकिन वहीं यदि मानव रूप में लक्ष्मी उसके घर पधारे, तो उस इंसान पर तो मानो जैसे दुख का पहाड़ ही टूट पड़ता है। वह उस लक्ष्मी को पाकर खुद को खुशनसीब समझने के बजाय, इस लक्ष्मी को, बोझ मान कर खुद को बदनसीब की कतार में खड़ा कर देता है। एक माँ, एक नन्ही सी जिंदगी को, इस धरती पर लाने के लिए, असीम पीड़ा को सहती है। लेकिन जैसे ही, वह नन्हीं जान जन्म लेती है, यह समाज उसमें भेदभाव करने लगता है। उसकी शुरुआत यहाँ से होती है कि, यदि घर में लड़का पैदा हुआ हो तो आपको पेढे का स्वाद चखने को मिलेगा, और यदि लड़की हुई हो तो जलेबी से आपका मुँह मीठा किया जाता हैं।

बदलाव – आज के जमाने में, यह पेढे और जलेबी की जगह सारे भेदभाव भूलाकर, अब बर्फी ने ले ली। एक स्त्री के जन्म को उसी उत्साह तथा उमंग से मनाया जाता है। देर से ही सही, यह बात लोगों के समझ में आ गई है कि, लिंग भेद से कोई श्रेष्ठ कोई नीच साबित नहीं होता, बल्कि ये सबकुछ माता-पिता व्दारा किए संस्कारों पर निर्भर होता है। यहाँ तक की लिंग के कारण रंगों में किये गए भेद (लड़के के लिए नीला रंग तथा लड़की के लिए गुलाबी रंग) में भी खलल पड़नी शुरू हो चुकी है। अब दोनों के लिए समान रंग का चुनाव किया जाता है।

कहते हैं शिक्षा का उद्देश्य “एक खाली दिमाग को एक खुले दिमाग में बदलना है”।

लेकिन पता नहीं हमारे समाज में कदम रखते ही, शिक्षा का मुख्य उद्देश्य सिर्फ अपने नाम के आगे उस डिग्री का शीर्षक लगाने तक ही सीमित होकर रह जाता है। भारत में आकर शिक्षा भी, यहाँ की स्त्रियों तथा पुरुषों में भेदभाव करने लगती है। बेटे के लिए – “शहर का सबसे अच्छे स्कूल में दाखिला करवायेंगें, आगे चलकर वही तो हमारा नाम रौशन करेगा।”, बेटी के लिए – “पढ़ लिखकर क्या ही कर लेगी? आखिर संभालना तो चुल्हा चौका ही है”। एक स्त्री चाहे कितना भी पढ़े, कितना भी नाम कमा ले, उसका मूल्य ना के बराबर है। उसके परिवार वालों प्रतिक्रिया ऐसी होती है मानो – हो गया? अच्छी बात है, ना भी हुआ होता तो कोई फरक नहीं पड़ता। वहीं यदि परिवार के लड़के को ठीक-ठाक अंक भी मिले तो घरवालों की नाक ऊँची करने के लिए काफी है। इतिहास गवाह है, इस बात का कि, किस प्रकार, ज्योतिबा फुले को अपनी पत्नी को पढ़ाने के लिए समाज के अमानुष बर्ताव का, बेरुखी का सामना करना पड़ा था। आज भी भारत कहाँ बदला है? इस निषिध्दता की बेड़ियों की पकड़, इतनी मजबूत है कि, आज के आधुनिक भारत में भी एक पुरुष को एक स्त्री के अधीन काम करना, खुद के अपमान कारण लगता है। आज भी उसकी काबिलियत को न जाने क्यों शक की निगाह से देखा जाता है। कदम कदम पर इस मानव रुपी लक्ष्मी को अपमाननित किया जाता है।

बदलाव – शिक्षा के दम पर, आज की स्त्री आसमान की नई बुलंदियाँ छू रही है। कल तक जो समाज उसकी काबिलियत पर शक किया करता था, आज उसकी कामयाबी पर नाज़ किया करता है। फाल्गुनी नायर, मलिनी अग्रवाल, रीचा कर, विनीता सिंह जैसे अनेक अनगिनत महिला उद्यमी हो या फिर कल्पना चावला, सुनीता विलियम जैसी आकाश को अपनी मुट्ठी में करनेवालीं विरांगनाएँ हो या फिर किरण बेदी जैसी पुलिस अफसर तथा ऐसी अनेक उच्च शिक्षित स्त्रियों ने अपनी शिक्षा तथा दृढ़ निश्चय से भारत का सिर गर्व से ऊँचा किया है।

चूल आणि मूल:

मराठी भाषा में एक वाक्य कहा जाता है – “स्त्री म्हणजे फक्त चूल आणि मूल”। इसका मतलब है कि, एक स्त्री का दायरा सिर्फ चूल्हे से बच्चों तक सीमित है, यानी उसका कर्म सिर्फ खाना पकाकर, अपने परिवार को परोसना और सिर्फ बच्चे बनाने तक है। आज के आधुनिक समय में हम देखते हैं कि, बहुत सारी स्त्रियाँ ऐसी हैं, जो घर से बाहर जाकर नौकरी तो करती हैं, लेकिन उनके लिए सारी स्थितियाँ समान नहीं होतीं हैं। जिस प्रकार, कोई पुरूष, बाहर काम करके, थका हारा जब घर लौटता है, तब उसकी खूब खातिरदारी होती है। उस दृष्टि से, यदि स्त्री की ओर देखा जाए तो, यह कभी भी उसके साथ नहीं होता, क्योंकि समाज के हिसाब से स्त्री बनी है, घर का चूल्हा और बच्चे संभालने के लिए। इसके अलावा यदि, उसे घर से बाहर निकलना हो तो, उसे समाज का सामना तो करना पड़ता ही है, सिवाय यह भी बात उसकी गाँठ में बनवा दी जाती है कि, नौकरी करें इसका मतलब यह नहीं है कि, घर के कामों से उसे छुटकारा मिल जाएगा। इस हिसाब से यदि देखा जाए तो, एक नौकरी करने वाली स्त्री दिन के चौबीस घंटों में से, लगभग बाईस से तेईस घंटे काम करती है।

बदलाव – आज की स्त्री घर के साथ-साथ अपनी नौकरी भी पूरे आत्मविश्वास और पूरे समर्पण के साथ संभालती नज़र आती है। आज हर एक क्षेत्र में स्त्री किसी भी मामले में, पुरूष से कम नहीं है। कल तक जिस स्त्री को घर में जोर से बोलने तक के लिए मना किया जाता था। उसके मुकाबले, साल 2020 के गणतंत्र दिवस का दृश्य यह था कि, कैप्टन तानिया शेरगिल, भारतीय सेना के, पुरूष सैनिकों का नेतृत्व करनेवाली पहली महिला सेनानायक बनी, और हर कोई उसकी हुंकार भरी आवाज़ से आज्ञा पाने हेतु तत्पर था। इसके अलावा, आज कल यह बात भी आम हो गई है कि, पुरूष भी, अपनी संगीनी का रोजमर्रा के कामों में हाथ बटाँते हैं, जैसे की घर के काम करना हो या फिर बच्चों की देखभाल करना हो।

पवित्रता का ताज:

हमारे समाज में, एक स्त्री को देवी का सम्मान इसीलिए दिया जाता है ताकि उसके सिर पर पवित्रता का ताज सजाया जा सके। यदि ‘पवित्रता’ का पूरा जिम्मा, एक स्त्री के माथे पर है, तो समाज के पुरुषों का भी यह दायित्व है कि, एक स्त्री के पवित्रता को वह जोर जबरदस्ती से खंडित ना करें। ज्यादातर देखा गया है कि बलात्कारी के शोषण का शिकार एक स्त्री होती है और इससे भी ज्यादा पूरे घटना की गुन्हगार भी एक स्त्री ही होती है। क्यों नहीं यह समाज, एक पुरुष की ओर ऊँगली उठाकर नहीं पूछता कि, इतना घटिया दुष्कर्म करके भी, वह शांति से कैसे सो रहा है? क्यों नहीं यह समाज, अपने बेटों को इस बात की अनुभूति करवाता है कि, सामने से गुजरने वाली लड़की तुम्हारी माँ भी हो सकती है, तुम्हारी बहन हो सकती है, तुम्हारी पत्नी हो सकती है। क्यों हर बार पवित्रता का तख़्ता दिखाकर, एक स्त्री को ही बदनाम किया जाता है?

बदलाव - आज भारत में, बढ़ते बलात्कारों के मामलों को देखते हुए, तथा इनकी गंभीरता को समझते हुए, भारतीय दंड संहिता में, धारा 375 तथा 376 के तहत, दोषियों को आजीवन कारावास से लेकर, फाँसी की सज़ा का प्रावधान किया गया है। माना, इस कानून को लागू होने में बहुत समय लगा है, लेकिन देर से ही सही, सरकार दृष्टि इस ओर गई तो सही।

जंजीरों का टूटना

जी हाँ ! भारत बदल रहा है। लेकिन, उसकी रफ्तार, काफी धीरे है। कहते हैं ना, पुराना पेड़ है धीरे-धीरे कट रहा है, उखड़ रहा है, लेकिन उसकी जड़े इतनी गहराई तक धँसी है कि, उसे पूरी तरह निकलने में लंबा समय लगने वाला है। यह कहना गलत न होगी कि, आज की स्त्री ने माता लक्ष्मी का रूप छोड़कर माँ दुर्गा का रूप धारण कर लिया है, जो, उसके पैरों में पड़ी जंजीरों को रौंदकर आगे बढ़ रही है। भगवान ने स्त्री के शरीर की बनावट अलग तरह से की है। लेकिन इसक मतलब यह कतई नहीं हैं कि, वह अपने सामने सजी - परोसी थाल की माँग कर रही है। वह भी पुरूषों के समान उतनी ही मेहनत, उतना ही संघर्ष कर रही ही है, लेकिन ये समाजिक जंजीरें, उसके लक्ष्य की ओर जाते उसके मार्ग को और भी कठिन बना देता है। वैज्ञानिक क्षेत्र में बढ़ती प्रगति के साथ, इन सामाजिक निषेधों को भी पीछे छोड़ना आवश्यक है।

धन्यवाद!!

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