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मनुष्य का जीवन तभी सुखी रहता है जब वह हर हाल में संतुष्ट हो। आज की आपा धापी में मनुष्य अपने आप को खोता जा रहा है। संतुष्टि का अर्थ -अकर्मण्यता नहीं है ।कर्तव्य तो पूरी निष्ठा के साथ अवश्य करना ही चाहिए ।ऊंचे उद्देश्यों और आदर्शों को लेकर सतत् प्रयास करते रहना चाहिए। हमें दूसरों की सहायता ,परोपकार ,कष्ट निवारण और आध्यात्मिक उत्थान के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए। बस आवश्यकता केवल इस बात की है जो भी उपलब्धियां हमें प्राप्त हो उनके प्रति संतुष्टि का भाव हो।

कहावत है 'संतोषी सदा सुखी',अर्थात् जब हम हर तरफ संतुष्ट होते हैं तभी हमें परम सुख प्राप्त होता है।वहीं यदि इसके विपरीत देखा जाय तो असंतुष्टि ,जो कि हमें अपने लक्ष्य से दूर कर देती है।इसका जब ऐसा फल है तब भला कौन है जो व्यक्ति इसका वरण करेगा ?कुछ लोग भाग्यवादी होते हैं, मानते हैं कि भाग्य ही सब कुछ है अतः प्रयास और प्रयत्न करना उन्हें व्यर्थ लगता है। ऐसा सोचना ठीक नहीं है, क्योंकि कर्म से ही प्रारब्ध बनता है ।यह प्रारब्ध ही भाग्य कहलाता है। अतः पूरे तौर से भाग्यवादी बनकर सत्कर्म और सतत् प्रयासों से विरत हो जाना भाग्य को बिगाड़ना ही है। भाग्य में परिवर्तन संभव है ,भावी को मेट सकना संभव है, पर यह सब सभी व्यक्ति सहजता से हासिल कर सके ऐसा संभव नहीं। यह सब ईश्वर की कृपा से ही संभव है।कहते हैं-" भावहुं मेंट सकहि त्रिपुरारी" ।इसके लिए अनुष्ठान, यज्ञ, जप, तप पूजा-पाठ, दान धर्म और नाना प्रकार के उपाय बताए गए हैं।मंत्र और औषधि का भी विधान बताया गया है ।अतः दुर्भाग्य के निवारण और सौभाग्य के सृजन और वृद्धि के लिए उपायों के अवलंबन की आवश्यकता होती है।जीवन के यथार्थ को समझना होगा। ये उपयुक्त उपाय अपनाने पर जो फल प्राप्त हो उस प्राप्ति में संतुष्टि का अनुभव मनुष्य को सुख प्रदान करता है।मनुष्य की चाहत कभी खतम नहीं होती।एक चीज पा लेने के बाद ही दूसरी चीज की चाहत पनपने लगती है।आज लोग मानसिक तनाव ,दुख और अशांति से ग्रसित हैं। हृदय में कई तरह की आग धथकती रहती है ।इसका मुख्य कारण है नियति को अस्वीकार करना ।यदि नियति को स्वीकार कर दुर्भाग्य के निवारण के शास्त्रोचित उपाय किए जाएं तो व्यक्ति को पग पग पर संतुष्टि प्राप्त हो सकती है। शांति लाभ हो सकता है। शांति जीवन की चरम उपलब्धि है, जिसका आधार संतुष्टि है ।भाग्य सुधार के शास्त्र सम्मत उपाय ही श्रेयस्कर हैं। अन्य उपाय भाग्य बिगाड़ सकते हैं ।भले ही तत्काल कुछ समय के लिए वे भाग्य वर्धक जैसे दिखे पर अंतिम परिणाम असंतुष्टिदायक हो सकता है ।कुछ लोग तो भाग्य चमकाने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहते हैं पर क्या यह ठीक है? संतुष्टि एक मानसिक स्थित है जिससे मन प्रसन्न रहता है। मस्तिष्क का बोझ उतर जाता है ।बुद्धि स्थिर हो जाती है और सही दिशा में चलती है। सोच संयत हो जाती है ।भोजन से रस रक्त आदि सही प्रकार से पूरी मात्रा में बनने लगते हैं ।शरीर निरोगी हो जाता है ।हृदय की गति नॉर्मल बनी रहती है। श्वांस प्रश्वास संयमित रहता है, रक्त का संचार ठीक से काम करता है ।उन्हें शांति रहती है। क्रोध ,प्रतिशोध इर्ष्या,हिंसा और लोभ के भाव व्यक्ति को व्यथित नहीं कर पाते ।तनाव, डिप्रेशन एवं स्नायु विकारों का आक्रमण नहीं हो पाता। संतुष्ट मनुष्य का हृदय आह्लादित रहता है ।उसके अंदर एक अजीब प्रकार की खुशी और मस्ती छाई रहती है अतः इसे व्यक्ति का पुरुषार्थ ही कहा जाएगा कि वह अपने अंदर संतुष्टि की मनःस्थिति उपजा सके उसे स्थाई रूप से बसा सके और उसे पुष्पित पल्लवित करता रहे।इसी सोच को आगे बढ़ाना है।

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