आलेख
"कोरोना संकट काल और पर्यावरण प्रदूषण से मुक्ति के बीच नई राह"
प्रकृति का मनुष्य के साथ अन्योन्याश्रित संबंध:-
"हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाएँगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे।
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाएँगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से"
कितना सत्य है, कविवर शिवमंगल सिंह सुमन जी द्वारा विरचित उक्त पंक्तियों में । कितना अच्छा लगता है एक पंछी को आकाश में स्वछंद विचरण करने में,एक नदिया को कल कल बहने में । प्रकृति के समस्त उपादान हमारे पर्यावरण का अहम हिस्सा हैं । प्रकृति मानव की सहचरी है । प्रकृति का मनुष्य के साथ आदिकाल से ही अन्योन्याश्रित संबंध रहा है । मानव जाति पृथ्वी पर अकेले जीवित नहीं रह सकती है ।
क्योंकि मानव को अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति के अन्य जीवधारियों पर निर्भर आश्रित रहना पड़ता है । पृथ्वी ही वह ग्रह है जो मनुष्य के निवास के लिए उपयुक्त परिस्थितियां प्रदान करती है । यही वह स्थान है जहां जैव विविधता सर्वत्र बिखरी पड़ी है ।
जैव विविधता से तात्पर्य : जैव विविधता शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग वॉल्टर जी रोसेन नामक जीव विज्ञानी ने सन 1986 में किया था । इसे परिभाषित करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने कहा," जीव जंतुओं में मिलने वाली भिन्नता, विषमता तथा पारिस्थितिकी जटिलता को जैव विविधता कहा जाता है।
रोसेन महोदय के अनुसार," पादप और जंतुओं तथा सूक्ष्म जीवों की विविधता तथा भिन्नता,जैव विविधता कहलाती है ।"
किसी भी पारिस्थितिक तंत्र का स्थायित्व उसकी जैव विविधता पर ही आधारित होता है । भारत एक वृहद विविधता वाला राष्ट्र है तथा एक वृत्त जैव विविधता राष्ट्र के रूप में भी जाना जाता है भारत का विश्व के कुल क्षेत्रफल का लगभग 2% भू भाग है तथा इस राष्ट्र में विश्व की कुल ज्ञात जैव प्रजातियों का 4% भाग निवास करता है ।
मनुष्य ने अपना विकास क्या विनाश के लिए किया है ? यह सोचनीय है ।
आजकल प्रकृति में जैव विविधता में लगातार कमी आती जा रही है । विश्व स्तर पर बढ़ते जैव विविधता संकट के कारण अनेक प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं और अनेक विलुप्त के कगार पर हैं । बढ़ता हुआ पर्यावरण प्रदूषण सूखा व बाढ़ आदि आपदाएं ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन, महामारी जैसी गंभीर समस्याएं वन्य जीवन के अति विदोहन के फलस्वरूप उत्पन्न हुई हैं प्रमुख कारण निम्नांकित हैं -
जनसंख्या में निरंतर वृद्धि के कारण जैव विविधता में कमी आती जा रही है । मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वनों की अंधाधुंध कटाई कर रहा है फलस्वरूप जीवों के निवास स्थान समाप्त होते जा रहे हैं । और पारिस्थितिक तंत्र में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो रही है जैव विविधता के संरक्षण हेतु भारत सरकार के वन और पर्यावरण मंत्रालय ने अनेक कार्यक्रमों को स्वीकृति देकर उन पर क्रियान्वयन करना प्रारंभ किया । सन 1976 में भारत के संविधान की धारा 48/ A लागू की गई जिसके अंतर्गत यह प्रावधान है कि पर्यावरण की सुरक्षा तथा उसमें सुधार का मौलिक कर्तव्य भारत के प्रत्येक नागरिक का है। बढ़ती हुई पर्यावरणीय समस्या एवं जैव विविधता संरक्षण को दृष्टिगत रखते हुए आवश्यक है कि पर्यावरण के प्रति आम नागरिक में सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास किया जाए ।
प्राकृतिक पर्यावरण व जैव विविधता को संरक्षित रखने हेतु वैश्विक स्तर पर अनेक सम्मेलनों व गोष्ठियों का आयोजन भी समय-समय पर किया जाता रहा है-
1.सन 1970 में पोषणीय विकास पर आधारित को कोकोयाक सम्मेलन का आयोजन किया गया 2.दक्षिण अफ्रीका के जोहांसबर्ग में 26 अगस्त 2002 से 4 सितंबर 2002 तक तृतीय पृथ्वी सम्मेलन या प्लस 10 का आयोजन किया गया । जिसमें पर्यावरण संरक्षण से जुड़े मुद्दों हेतु योजना निर्माण पर आम सहमति बनाने पर विचार विमर्श किया गया ।
कोराना संकट काल एवं हमारी संस्कृति में अनादि काल से समन्वित समाधान :
प्रकृति का संरक्षण हमारी जीवन शैली का अभिन्न रहा है । प्रकृति के साथ मनुष्य का माता व पुत्र के समान संबंध है । अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में प्राकृतिक दृष्टिकोण को अभिव्यक्त किया गया है :
"माता भूमि: पुत्रोSहं पृथिव्या: ।" मनुष्य प्रकृति की उपज होता है अर्थात मानव जीवन को प्राकृतिक परिस्थितियां व्यापक रूप से प्रभावित करती हैं मार्गेड थीड ने भी कहा है, "यदि हमने पर्यावरण को नष्ट किया, तो हमारा समाज भी नष्ट हो जाएगा । " वर्तमान समय में भौतिकवादी विचारधारा के कारण मनुष्य भोग विलासिता के साधनों में अधिक से अधिक वृद्धि करना चाहता है और इसके लिए वह प्राकृतिक संपदाओं का अविवेक पूर्ण दोहन कर स्वयं के पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है । समूची दुनिया में आज इस विनाश की स्थिति अत्यंत चिंतनीय है कोविड-19 वैश्विक महामारी ने प्राकृतिक एवम् जैविक आपदा के रूप में संपूर्ण विश्व को झकझोर कर रख दिया है।
कोरोना महामारी ने चेतावनी दी है कि हे मनुष्य! अब प्रकृति से खिलवाड़ बहुत हो चुका है , चेत जाओ अन्यथा तुम्हारा अस्तित्व भी न रहेगा । किसी ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि आज जो कुछ अनुभव कर रहे हैं, ऐसी त्राहि त्राहि अपने जीवन काल में देखनी पड़ेगी । परंतु यह एक कटु सच्चाई है, जिसका सामना हर प्राणी को न चाहते हुए भी करना पड़ रहा है ।शक्तिशाली देश भी इस महामारी के आगे बेबसी के आंसू बहाते दिखाई दे रहे हैं। इस संदर्भ में पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का कथन उल्लेखनीय है
"बुद्धिमता अच्छी चीज है पर अति हर चीज की हानिकारक है प्रकृति की गोद में पलकर उसका मां की तरह दूध पीना उपयुक्त है पर सोने का एक अंडा रोज देने वाली मुर्गी का पेट चीरकर सारे अंडे एक साथ निकालने का लालच लाभ के स्थान पर हानिकर ही सिद्ध होता है।"
पर्यावरण-सन्तुलन से अभिप्राय है : "जीवों के आसपास की समस्त जैविक एवं अजैविक परिस्थितियों के बीच पूर्ण सामंजस्य स्थापित होना ।"
जल, जंगल और जमीन ही विकास के पर्यायवाची हैं। यदि हम दोबारा प्रकृति की ओर लौटेंगे तो ही लंबे समय तक अपना अस्तित्व बचा पाएंगे । वेद, पुराण, कुरान, बाइबल और सभी धर्मशास्त्र प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षक के प्रबल पक्षधर रहे हैं । वेदों में प्रकृति संरक्षण से सम्बंधित अनेक सूक्त प्राप्त होते हैं। ऐतेरेयोपनिषद् के अनुसार ब्रह्मांड का निर्माण पंच तत्वों पृथ्वी, वायु, आकाश, जल एवं अग्नि को मिलाकर हुआ है।
"इमानि पंचमहाभूतानि पृथिवीं, वायुः, आकाशः, आपज्योतिषि। (३:३)।"
इन तत्वों में किसी भी प्रकार के असंतुलन के परिणाम स्वरूप ही प्राकृतिक आपदाएं आती हैं। भारत में धर्म और पर्यावरण में अत्यंत निकट का संबंध रहा है। सभी धर्मों में कुदरत की पूजा करना, कुदरत के नियमों का पालन करना और ईश्वरीय सत्ता के प्रति अपना आभार प्रकट करना प्रमुख नियम है । प्रकृति के सभी उपादान प्राचीन काल से ही पूजनीय रहे हैं, चाहे वे पशु हों या पेड़-पौधे। विभिन्न पेड़-पौधे और पशु-पक्षी घर- घर में पूजे जाते हैं। आकाशीय ग्रहों और नक्षत्रों को भी पूजनीय माना गया है।
पैगंबर मुहम्मद का भी कहना था कि, ‘चाहे क़यामत का दिन ही क्यों न आ जाए, आप अपने हाथ में कोई पौधे को पकड़े हों, तो उसे रोप दें।'
सिक्ख धर्म में गुरु ग्रन्थ साहिब में हवा को गुरु ,पानी को पिता तथा धरती को मां का स्थान दिया गया है-
"पवन गुरु,पानी पिता, माता धात महत।"
जैन धर्म में भगवान महावीर के सिद्धांतों में जियो और जीने दो, अहिंसा परमोधर्म: एवं अपरिग्रह प्रमुख हैं, जो यह दर्शाते हैं कि जैन धर्म में पर्यावरण संरक्षण को बहुत महत्व दिया गया है । आचार्य श्री उमा स्वामी ने तत्वार्थ सूत्र नमक आद्य ग्रंथ में जीवों के विषय में अध्याय ५ के सूत्र २१ में कहा है – “परस्परोपग्रहो जीवानाम” अर्थात् सभी जीव परस्पर सामंजस्य अनुसार परस्पर पर आधारित है जो कि जैविक श्रंखला के सिद्धांत को बतलाता है ।
कोरोना काल की शिक्षा : प्रकृति की ओर लौटो:-
प्रकृति की ओर लौटने के संदेश को और समस्याओं के समाधान को प्रकृति में निहित होने के परिप्रेक्ष्य में निम्नानुसार बिंदु उल्लेखनीय हैं:-
आइए हम एक खुशहाल विश्व के नवनिर्माण के लिए प्रयासरत हों । इस अमूल्य निधि की रक्षा करना हमारा सामूहिक कर्तव्य है ।
प्रसिद्ध कवि रवि कामिल जी की पंक्तियां दृष्टव्य हैं
"प्रकृति के उपकारों को भूल गया इंसान ।
स्वार्थ की खातिर दुनिया में बन बैठा शैतान।
आदमी क्या से क्या हो गया।
प्रकृति संहारक बन मानव से बदला लेती।
कभी बाढ़, भूकंप, कभी महामारी फैला देती ।
उसकी ताकत के आगे कमजोर है मानव जाति ।
वह घटनाओं से मानव को बार-बार समझाती ।
संतुलन बिगड़ा कुदरत का खतरे में संसार।"
आइए हम अपनी प्रकृति से प्यार करें ।
इति।
मौलिक /स्वरचित
©लेखक का नाम- डॉ.दीप्ति गौड़
शिक्षाविद् एवम् कवयित्री
ग्वालियर, मध्यप्रदेश ( world record participant)
सर्वांगीण दक्षता हेतू राष्ट्रपति भवन नई दिल्ली की ओर से भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति महामहिम स्व. डॉ. शंकर दयाल शर्मा स्मृति स्वर्ण पदक,विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न शिक्षक के रूप में राज्यपाल अवार्ड से सम्मानित.