“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल

बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल”

-भारतेंदु हरिश्चंद्र

किसी भी देश की संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग भाषा होती है | भाषा संस्कृति की संवाहिका होती है l भाषा मात्र ध्वनियों, अक्षर और शब्द भंडार की व्यवस्था नहीं है अपितु यह अपने साथ अनेक विचार भी लाती है l दुनिया को देखने का एक दृष्टिकोण प्रदान करती है l उसी समाज,जाति अथवा राष्ट्र को उन्नत समझा जाता है जिसका साहित्य उच्च कोटि का होगा l साहित्य को ‘समाज का दर्पण’ कहा गया है l समाज के जैसे विचार होंगे भावनाएं होंगी, उसी प्रकार का साहित्य भी होगा l बिना भाषा के माध्यम के हम उच्च कोटि के साहित्य का सृजन नहीं कर सकते हैं l भाषा को परिभाषित करते हुए भाई योगेंद्र जीत का कथन है-

“विश्व के रंगमंच पर होने वाले क्रियाकलापों से, घात-प्रतिघात से, घटनाक्रमों से मनुष्य का अंतर उद्वेलित उठता है उसके ह्रदय में वलवले से उठने लगते हैं l अंतर या हृदय का यह उद्वेलन दिल के यह वलवले जिस माध्यम से प्रकट होते हैं, वही भाषा है l”

बिना भाषा के संस्कृति का प्रकाशन संभव नहीं है l फलस्वरुप भाषा और संस्कृति का अभिन्न संबंध है l प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी डॉ. रघुवीर ने भाषा के संबंध मे अपने विचार प्रकट करते हुए कहा-

“प्रत्येक सभ्य राष्ट्र की अभिव्यक्ति का माध्यम उसकी अपनी भाषा होती है l जनतंत्र का माध्यम जनभाषा है l जनभाषा का विरोध जनतंत्र का विरोध है l यदि देश में अनेक जन भाषाएं हैं तो देश में एक केंद्रीय भाषा हिंदी भी है जो समुद्रों के पार से नहीं बुलाई गई यह देश से उपजी भाषा है दूसरी भाषाओं से मिली हुई है ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टि से यह भारतीय भाषाओं की सखी और सहेली है केंद्रीय भाषा भारत की एकता की श्रंखला है l”

भारतीय भाषा के उन्नायक और उसका प्रचार करने वालों में भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाम अत्यंत आदर से लिया जाता है l वह कहते हैं कि-

“ हम जिस के बीच रहते हैं , जिसके सहारे चिंतन करते हैं , आपस में बातचीत करते हैं ,उसी के लिए इतना निरादर क्यों ? हम उसे पराया क्यों मानते हैं ? फिर हम पर विदेशी भाषाओं का भार क्यों डाला जाता है l विदेशी भाषाओं में विचार और वार्तालाप के लिए विवश होकर हम अपने विचारों को कुंठित करते हैंl “

उनकी लेखनी बरबस ही बोल पड़ती है-

“पढ़ो -लिखो कोउ लाख विधि, भाषा बहुत प्रकार l
पै जब ही कछु सोचिबो, निज भाषा अनुसार ll”

कोई भी विदेशी भाषा यहाँ स्वामिनी बनकर नहीं रह सकती l विदेशी भाषा का अध्ययन केवल उपयोगिता की दृष्टि से होगा l हम इनके अध्ययन के विरोधी नहीं, अपनी संस्कृति के संरक्षण हेतु राष्ट्रीय एकता हेतु अपनी भाषाओं का अस्तित्व बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है l

यह सर्वविदित सत्य है कि एकता में ही शक्ति निहित होती है । हमारा भारत देश विभिन्नता में एकता की एक मिसाल है । राष्ट्रीय एकता ही वह भावना है जो भारत में विभिन्न धर्मों, जातियों, भाषा, सभ्यता व संस्कृति के अनुयायियों को एक सूत्र में पिरोए रखती है | समन्वयात्मक संस्कृति से आप्लावित भारतवर्ष को गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर ने एक ‘महामानव समुद्र’ की संज्ञा प्रदान की है । समूचे विश्व को ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का पाठ पढ़ाने वाले भारत ने नवीन परिवर्तनों के दौर से गुजरते हुए भी बाह्य प्रभावों को स्वयं में आत्मसात करके उसे अपने में ढाल लिया।भारतीय भाषाओं और सांस्कृतिक प्रतिमानों को जानने व सीखने की ललक विदेशों तक अपनी पैठ बना चुकी है । भारतीय योग समूचे विश्व में अपना परचम लहरा रहा है । सनातन सामाजिक मूल्यों व सांस्कृतिक विविधताओं की अभिव्यक्ति व भाव संप्रेषण का सशक्त माध्यम भाषा ही है ।

काव्यादर्श में भाषा की शब्दात्मक महिमा का वर्णन करते हुए स्पष्ट किया गया है कि-

“इतम अन्धतम: कृत्स्नं जायेत भुवन त्रयं।
यदि शब्दाहव्यं ज्योतिरासंसारम् न दीप्यते।”

इसका अभिप्राय है कि यदि शब्दरूपी ज्योति न होती तो यह सम्पूर्ण जगत् अन्धकार में ही रहता अर्थात् अव्यक्त ही रह जाता ।

संस्कृति का जन्म कब होता है जब कोई समाज एक ही रीति से कुछ कार्य करता है l एक समान विश्वास रखता है , समान आदर्श सामने रखता है तथा अपने पूर्वजों के कार्यों को करने में गौरवान्वित अनुभव करता है l एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरण करता है l संस्कृति उतनी ही प्राचीन है जितनी की सभ्यता l संस्कृति आधारशिला है l स्वामी चिन्मयानंद का कथन है कि “सभ्यता है मनुष्य का अपनी बाह्य प्रकृति पर नियंत्रण, संस्कृति है मनुष्य का अपनी आंतरिक प्रकृति पर नियंत्रण l जब किसी भौगोलिक क्षेत्र में एक लंबे समय तक कुछ लोगों का समूह अपने विशिष्ट जीवन मूल्यों का निर्वाह करते हुए साथ-साथ रहता है l जब जो विशिष्टताएं, जो पहचान उस जनसमूह की बनती है , वह उस जन समाज की संस्कृति होती है l संस्कृति को सिखाया नहीं जा सकता संस्कृति को ग्रहण ही किया जा सकता है बच्चे उसे ग्रहण करें।”

प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैकाइवर के अनुसार -

“ संस्कृति हमारी दैनिक व्यवहार में कला, साहित्य, धर्म, मनोरंजन और आनंद में पाई जाती है और रहन-सहन व विचार के तरीकों में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है l ”

संस्कृति एक जटिल विचार है इसमें वे सभी बातें समाहित हैं जिनका अस्तित्व था और वर्तमान में भी है, साथ ही रहेगा जो मानव के लिए अर्थपूर्ण है l

‘culture’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘cultra’ शब्द से हुई है l जिसका अर्थ है – कर्षण, खेती, जुताई, संवर्धन, शिक्षण द्वारा सुधार, संस्कृति, शिष्टता l संस्कृति को परिभाषित करना कठिन कार्य है l

सदरलैंड व वुडवर्ड के अनुसार,

“संस्कृति में कोई भी बात आ सकती है, जिसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किया जा सकता है l किसी भी राष्ट्र की संस्कृति उसकी सामाजिक विरासत है l”

जे. एफ. ब्राउन के शब्दों में,

“संस्कृति किसी समुदाय के संपूर्ण व्यवहार का एक ढाँचा है जो अंशतः भौतिक पर्यावरण से अनुकूलित होता है l यह पर्यावरण प्राकृतिक एवं मानव निर्मित दोनों प्रकार का हो सकता है किंतु प्रमुख रूप से यह ढांचा सुनिश्चित विचारधाराओं, प्रवृत्तियों, मूल्यों तथा आदतों द्वारा अनुकूलित होता है जिनका विकास समूह द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाता है l”

प्रत्येक व्यक्ति को अपनी संस्कृति पर गर्व होता है l

संस्कृति मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है-

  1. भौतिकवादी
  2. आध्यात्मिक

भौतिकवादी संस्कृति के पक्षधर अदृश्य की सत्ता को नहीं स्वीकारते l यह प्रकृति पर विजय प्राप्त कर उसे अपने व्यक्तिगत जीवन के लिए उपयोगी बनाने पर बल देते हैं l आध्यात्मिक संस्कृति में दृश्य जगत की अपेक्षा अदृश्य सत्ता की ओर ध्यान केंद्रित किया जाता है l भौतिक जगत की सत्ता को पूर्ण रुप से नहीं नकारते, वरन उनके अनुसार जो अदृश्य है , इंद्रियातीत है ,उसकी भी अपनी सत्ता है l विश्व में सर्वप्रथम भारत में व्याकरण का जन्म हुआ l वेदों की रचना हुई व साहित्य बना जो दिग - दिगंत अपना प्रकाश प्रकीर्णन कर रहा है l

ऐतिहासिक रूप से यह ज्ञात होता है कि व्याकरण सम्मत भाषा का साहित्य में अत्यंत महत्व था l संस्कृत भारत की सांस्कृतिक भाषा है l वह भारतीय भाषाओं की जननी है l भारतीय जीवन धारा में धार्मिक ,सामाजिक कार्य , अनुष्ठानों और संस्कारों की भाषा संस्कृत ही है l भारत के साहित्यिक, सांस्कृतिक ,ऐतिहासिक ,आध्यात्मिक और राजनीतिक जीवन की पूरी व्याख्या संस्कृत भाषा के वाङ्गमय में समाविष्ट है l संस्कृत ने ही एक वृहद संस्कृति का निर्माण किया और अपनी सार्वभौमिकता व विशिष्टताओं के कारण वह इंडोचीन, भारत, मध्य एशिया , तिब्बत , चीन ,कोरिया जापान आदि देशों में भी प्रविष्ट एवं प्रतिष्ठित हुई l राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय एकता का शंखनाद किया l देववाणी संस्कृत साहित्य की विशालता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है l वैदिक साहित्य एवं संस्कृत साहित्य के आधार पर ही मैक्स मूलर और एडलबर्ट कुहन ने ‘तुलनात्मक प्राचीन कथा विज्ञान’ नामक विज्ञान को जन्म दिया है l विंटरनिट्स का कथन उल्लेखनीय है-

“भारतीय साहित्य की विपुलता को देखकर बुद्धि दंग रह जाती है l भारतीय पांडुलिपियों की विपुल सूचियां भारत तथा यूरोप के पुस्तकालयों में सर्वत्र सहस्त्रों लेखकों और ग्रंथों के नाम गिनाती है l”

संस्कृत भाषा के कारण ही भारत जगतगुरु कहलाया l देश के इतिहास संस्कृति और सभ्यता के शिक्षण के लिए संस्कृत ही एक उत्कृष्ट साधन है l

भारत के दो ही परिचय हैं-

“भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृत संस्कृतिस्था l ”

राष्ट्रीय संस्कृत शिक्षा सम्मेलन के उद्घाटन भाषण में भूतपूर्व उप-राष्ट्रपति श्री बी. डी. जत्ती ने संस्कृत का राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में महत्व बताते हुए कहा था कि,

“संस्कृत भाषा भारत में पुरातन विचारों की संवाहिका, शैक्षणिक तथा सांस्कृतिक परंपराओं की संरक्षिका है l संस्कृत भाषा के अध्ययन से राष्ट्रीय एवं भावनात्मक एकीकरण का निर्माण हो सकता है l क्योंकि यह भारतीय भाषाओं की जननी है l हमारे संस्कृत साहित्य द्वारा भारत के उत्तरी व दक्षिणी भागों में समन्वय स्थापित किया गया है l भाषा विवाद तो संस्कृत भाषा के समक्ष नगण्य हो जाता है l क्योंकि संस्कृत भाषा के शब्दों का आधिक्य दक्षिण भारत की भाषाओं में तो दृष्टिगोचर होता ही है, उत्तर भारत की समस्त भाषाओं की उत्पत्ति भी संस्कृत भाषा से हुई है l”

विश्व में भाषाओं की संख्या अनगिनत है और भारत जैसे विशाल देश में भाषाओं की विविधता अधिक है l भारत की विशेषता है कि विविधता में भी एकता है l यूरोप महाद्वीप में भाषाओं के आधार पर राष्ट्रों का निर्माण हुआ है यहां प्रत्येक राष्ट्र की अपनी भाषा है l भारत में भाषाओं का स्वरूप क्षेत्रीय एवं प्रादेशिक है l भारतीय संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा का गौरवपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है l देशवासियों में परस्पर संपर्क व विचारों का आदान-प्रदान एक राष्ट्रभाषा के माध्यम से ही होता है l मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और बिहार हिंदी भाषा-भाषी प्रदेश है l परंतु पंजाब, हिमाचल प्रदेश, गुजरात के कुछ भागों में भी हिंदी का उपयोग निरंतर किया जाता है l

राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रीय एकता के निर्माण में राष्ट्रभाषा की भूमिका होती है l भारत जैसे विशाल राष्ट्र में भाषाओं की विविधतापूर्ण संस्कृति होने के कारण सभी भाषाओं का आदर व सम्मान तथा विकास किया जाना चाहिए l आधुनिक विश्व के समस्त देशों को एक दूसरे के साथ सहयोग देना चाहिए l अतः विश्व के अन्य देशों से संपर्क, विचारों का आदान-प्रदान भी वर्तमान युग की आवश्यकता है l अंतराष्ट्रीय भाषा के माध्यम से एक दूसरे के विचारों का आदान-प्रदान करने में सक्षम होते हैं l भारत की बहुभाषिकता के बावजूद भी एकता और अखंडता को कोई खतरा नहीं है l क्योंकि भारत का परस्पर शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व रहा है l मातृभाषा व प्रादेशिक भाषा में शिक्षा प्रदान की जाती है l साहित्य सृजन किया जाता है परंतु हम सब की परंपराएं व संस्कृति के स्रोत एक ही हैं l भारतीय भाषाओं में परस्पर द्वेष व कटुता नहीं है l

श्री पी. बी. पंडित ने अपनी पुस्तक “ इंडिया एज ए सोशियो-लिंगविस्टिक एरिया” में वर्णन करते हुए लिखा है कि-

“ यूरोप अथवा अमेरिका में दूसरी पीढ़ी प्रभुत्वशाली वर्ग की भाषा के पक्ष में अपनी भाषा को त्याग देती है l भाषा विस्थापन वहां का प्रतिमान है और भाषा अनुरक्षण एक अपवाद । भारतीय संदर्भ में भाषा अनुरक्षण एक प्रतिमान है और भाषा विस्थापन एक अपवाद l भाषाओं का अनुरक्षण क्यों होता है इस बात से अमेरिकी समाज भाषा-शास्त्री अपनी जिज्ञासा शुरू करते हैं l जबकि भारतीय समाज भाषा- शास्त्री इस बात से अपना अध्ययन शुरू करते हैं, लोग अपनी भाषा को क्यों त्याग देते हैं ?”

भ्रातृत्व की भावना सदियों से भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है जो आज तक अक्षुण्ण है l वेदों में भी कहा गया है -

“माता भूमि पुत्रो अहम पृथिव्यां”

ऐसी उदात्त भावना भारतीय संस्कृति के सिवाय और कहां पाई जा सकती है l वहीं “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” की भावना भी भारतीय संस्कृति की भावना है l जन्मभूमि पर संकट आने पर किस प्रकार पूर्व से लेकर पश्चिम तक उत्तर से लेकर दक्षिण तक हर भारतीय देश की रक्षा हेतु उठ खड़ा होता है l राष्ट्रीय एकता प्रत्येक भारतवासी का सबसे बड़ा धर्म है l

राष्ट्रीय एकीकरण परिषद (1961) ने राष्ट्रीय एकता को परिभाषित करते हुए लिखा-

“यह एक मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक प्रक्रिया है जिसमें लोगों के हृदय में सामंजस्य और सुसंजन की भावना तथा सामान्य नागरिकता और राष्ट्र के प्रति निष्ठा का भाव निहित है ।“

डॉ. जे. एस. वेदी के अनुसार,

“राष्ट्रीय एकता का अर्थ है देश के विभिन्न राज्यों के व्यक्तियों की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तथा भाषा विषयक विभिन्नताओं को वांछनीय सीमा के अंतर्गत रखना और उनमें भारत की एकता का समावेश करना l “

भारत एक अखंड प्रभुसत्ता संपन्न राष्ट्र हैl जिसमें विभिन्न प्राकृतिक परिवेश वाले नाना प्रांत है l इन विभिन्न असमानताओं में अवगुंठित एकत्त्व का भाव ही हमारी राष्ट्रीय एकता है -

“रंग रंग के रूप हमारे, अलग-अलग है क्यारी-क्यारी
लेकिन हम सब से मिलकर ही, इस उपवन की शोभा सारी l”

राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता पर बल देते हुए भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था-

“हमें संकीर्ण एवं संकुचित विचारधारा वाला प्रांतवादिता, संप्रदायवादिता एवं जात-पात की भावना से ओतप्रोत नहीं होना चाहिए क्योंकि अभी हमें बहुत कुछ प्राप्त करना है l हम सभी जो भारतीय गणतंत्र के नागरिक हैं उन्हें भारतीय नागरिकों के मध्य एकता स्थापित करनी है और इस देश को शक्तिशाली बनाना है l शक्ति सामान्य अर्थ में नहीं, बल्कि विचारों में, क्रिया में, संस्कृति में एवं मानवता की शांति हेतु उन्हें शक्तिशाली बनाना है । ”

राष्ट्रीय एकता बनाए रखने हेतु व्यापक राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का विकास करना परम आवश्यक है l प्रांतीयता , भाषावाद , क्षेत्रवाद की भावना से ऊपर उठकर राष्ट्रवाद की भावना विकसित करनी चाहिए l हमारे देश में भाषाओं के आधार पर राज्यों का गठन हुआ है परंतु फिर भी लोगों को एकता के सूत्र में बांधने का सबसे सशक्त साधन भी भाषा ही होती है l हमारे देश के विद्यार्थियों को भी इतना सक्षम बनाना है कि वह विभिन्नता में एकता की खोज कर सकें तथा अपने देश की सांस्कृतिक विरासत को समझकर उसका पुनर्मूल्यांकन कर सकें क्योंकि विद्यार्थियों के व्यक्तित्व पर भी समाज और संस्कृति का प्रभाव पड़ता है l वह किस प्रकार समाज के साधनों का उचित प्रयोग करके देश के सांस्कृतिक संरक्षण में अपना योगदान प्रदान कर सकते हैं यह भी चिंतन के प्रमुख बिंदु है l सामाजिकता राष्ट्रीय एकता की प्राप्ति के लिए संबंधी एक समुचित भाषा नीति का विकास किया जाना आवश्यक है l इस संबंध में शिक्षा आयोग का विचार है,

“आज के भारत ने उत्तराधिकार में महान संस्कृति पाई है परंतु दुर्भाग्य है कि यह एक समुचित रुप से शिक्षित राष्ट्र नहीं रह गया है और जब तक वह शिक्षित नहीं हो जाता तब तक वह अपने आप को आधुनिक नहीं बना पाएगा तथा राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की नई चुनौतियों का उचित रूप से सामना नहीं कर सकेगा l संस्कृति के अभाव में शिक्षा निस्सार है l प्रत्येक समाज अपनी संस्कृति के अनुरूप ही शिक्षा व्यवस्था करता है l शिक्षा ही संस्कृति के अस्तित्व को बनाए रखती है और संस्कृति की निरंतरता में सहायता प्रदान करती है l”

सामाजीकरण की प्रक्रिया में भाषा-समूह का अत्यंत महत्व है l सामाजिक क्रियाओं को भाषा की सहायता से सरल बनाया जा सकता है l भाषा के माध्यम से ही व्यक्ति अपने विचारों मूल्यों आदर्शों ज्ञान विज्ञान एवं संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करता है और यही हस्तांतरण की प्रक्रिया मानव को एक सामाजिक प्राणी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है l संस्कृति बालक के व्यक्तित्व में विशेषता उत्पन्न करती है l संस्कृति का प्रभाव विभिन्न संस्कृतियों में भिन्न भिन्न होता है प्रत्येक संस्कृति में निश्चित मार्ग होते हैं और उस संस्कृति में रहने वाले मनुष्यों को उन मार्गो का अनुकरण कर व्यवहार करना होता है l

किंबाल यंग महोदय का कथन है-

“सामाजीकरण का अर्थ यह है कि व्यक्ति जन नीतियों, रूढ़ियों , कानूनों अपनी संस्कृति की अन्य विशेषताओं तथा आदतों को सीखता है जो समाज का क्रियाशील सदस्य बनने में सहायता देती हैं वह अपने आप को परिवार, पड़ोस और वर्ग के अनुकूल बनाना सीखना है l सारांश में सामाजीकरण की संपूर्ण प्रक्रिया, अंतर्क्रिया या सामाजिक कार्य के अंतर्गत आती है l इन तीनों को संपादित करने के लिए मानव समाज द्वारा चिंतन किया जाता है l इस प्रकार मानव का चिंतन उसकी संस्कृति का निर्माण करता है l”

ओटावे महोदय का कथन है,

“शिक्षा का एक कार्य समाज के सांस्कृतिक मूल्यों और व्यवहार के प्रतिमानों को उसके तरुण और समर्थ सदस्यों को हस्तांतरित करना है l “

भावात्मक एकता समिति के अध्यक्ष डॉ. संपूर्णानंद के विचार अनुसार, “राष्ट्रीय एकता को उत्पन्न करने में शिक्षा महत्वपूर्ण कार्य कर सकती है l" उनका सुझाव था कि क्षेत्रीय भाषा के साथ एक आधुनिक भारतीय भाषा अनिवार्य रूप से पढ़ाई जानी चाहिए तथा शिक्षा द्वारा बालकों में उचित अभिरुचियों, दृष्टिकोण और संवेगों का विकास किया जाए ताकि वह अपनी सांस्कृतिक विरासत की विशेषताओं और परंपराओं को समझ सके l शिक्षा आयोग (1964- 66) ने नई शिक्षा प्रणाली का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य सामाजिक् एवं राष्ट्रीय एकीकरण निर्धारित किया शिक्षा नीति की अनुशंसाओं में भाषा नीति पर ध्यान केंद्रित किया गया l

भाषा नीति के अनुसार-

  • एक समुचित भाषा नीति के विकास से सामाजिक तथा राष्ट्रीय एकीकरण में महत्वपूर्ण सहायता मिलेगी l
  • विद्यालयों व महाविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो और उच्चतर शिक्षा का माध्यम प्रादेशिक भाषा बनाई जाए l
  • प्रादेशिक भाषा में पुस्तकें और साहित्य तैयार किया जाए l
  • हिंदी के अतिरिक्त सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं को अंतर्राज्यीय आदान- प्रदान का साधन बनाया जाए l
  • भारत की भाषा और साहित्य, दर्शन, धर्म और इतिहास के अध्ययन को सुनियोजित ढंग से प्रोत्साहित किया जाए l
  • भारत के भविष्य में आस्था उत्पन्न करने के लिए नागरिकता संबंधी पाठ्यक्रमों में संविधान के सिद्धांतों उसकी प्रस्तावना में उल्लिखित महान मूल्यों को स्थान प्रदान किया जाए l
  • स्कूलों व कॉलेजों संबंधी शिक्षा का कार्यक्रम लोकतांत्रिक मूल्यों को मन में बैठाने की दृष्टि से अपनाया जाए l

राष्ट्रीय एकता की भावना से अपने देश की संस्कृति की रक्षा और सामाजिक उत्थान में भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका है l वहीं भाषा देश को एक सूत्र में पिरोने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है l इस दृष्टिकोण से निम्नांकित साधनों व उपायों द्वारा भाषा समाज और संस्कृति का समन्वय स्थापित किया जा सकता है :-

विद्यार्थियों में भारतीय जीवन के मूल्यों समान नागरिकता, विविधता में एकता, लोकतंत्र , धर्म निरपेक्षता, समाजवाद न्याय , स्वतंत्रता , समानता तथा बंधुत्व में आस्था विकसित की जाए l

भारतीय भाषाओं में ऐसी पाठ्य-पुस्तकों का निर्माण किया जाए जिससे राष्ट्रीय एकता के विकास में सहायता मिले l

राष्ट्रीय एकीकरण के विकास हेतु सभी जातियों , संप्रदाय , भाषा और राज्यों में अधिक मेल उत्पन्न करने हेतु विद्यालयों में विभिन्न उत्सवों और त्यौहारों का समय-समय पर आयोजन किया जावे l

देश की ऐतिहासिक धरोहर से परिचित कराने हेतु इतिहास शिक्षण अनिवार्य है l

विभिन्न क्षेत्रों के महान व्यक्तियों के जीवन से परिचित कराया जाए l

पाठ्यक्रम में विभिन्न बोलियों के लोकगीतों और कहानियों को स्थान दिया जाए l

विद्यार्थियों को विभिन्न क्षेत्रों की संस्कृतियों और भाषाओं से परिचित कराया जाए l

भाषाई संकीर्णता दूर करने मे भारत के जन- जन में राष्ट्रीयता की भावना भरने हेतु प्रचार-प्रसार माध्यमों का समुचित प्रयोग किया जावे l

राष्ट्रीय एकता से संबंधित अध्ययन गोष्ठियो व कार्यक्रमो का आयोजन किया जाए l

पुस्तकालयों में संस्कृत व प्रादेशिक भाषा के समाचार पत्रों को स्थान दिया जाए l

इंटरनेट जैसी आधुनिक तकनीकी के माध्यम से विभिन्न भारतीय भाषाओं के प्रचुर साहित्य संबंधी जानकारियां खोजने हेतु प्रेरित किया जाए l

अहिंदी भाषी राज्यों में भी हिंदी व संस्कृत का व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए l

युवा उत्सव तथा अन्य कार्यक्रम पूरे देश में आयोजित करना चाहिए l

सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास करना l

एक भाषा के साहित्य का दूसरी भाषा में अनूदित साहित्य उपलब्ध कराना l

परिवार समाज का लघुकृत रूप है प्रत्येक परिवार का यह दायित्व है कि वह अपने पारिवारिक वातावरण में अपने समाज की संस्कृति को सन्निहित करें और संस्कृति का हस्तांतरण भावी पीढ़ी में करें l

परिवार का उत्तरदायित्व है कि वह बच्चों के अंदर सामाजिक गुणों को विकसित करें l

एक ओर जहां राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में भाषा ,समाज और संस्कृति की भूमिका निर्विवाद रुप से महत्वपूर्ण है वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय एकता की भावना से ही देशवासी अपनी संस्कृति की समन्वयात्मकता व विशेषताओं से अन्य देशों पर भी अपनी छाप छोड़ेंगे । भाषाई एकता राष्ट्र के नागरिकों की सबसे बड़ी एकता है जिसके द्वारा सामाजिक व सांस्कृतिक विरासत का हस्तांतरण किया जा सकता है। संस्कृति प्रकृति प्रदत्त नहीं होती वरन यह सामाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा अर्जित होती है । सामाजीकरण के माध्यम से ही वह अपनी संस्कृति को आत्मसात् करता है। इस प्रकार संस्कृति संस्कारों से संबंधित होती है जो वंश परंपरा व सामाजिक विरासत के संरक्षण के साधन है । सभ्यता व संस्कृति में असंतुलन की स्थिति सामाजिक विघटन को जन्म देती है l अतः आवश्यक है कि राष्ट्रीय एकता के लिए भाषा संबंधी वाद-विवाद का अंत कर के संपूर्ण राष्ट्र की भाषाओं का सम्मान करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है । विविध भाषा-भाषी लोगों की सांस्कृतिक विरासत और मूल्य तभी अक्षुण्ण रह सकेंगे जब भारतवासी राष्ट्रीय ऐक्य से ओतप्रोत रहेंगे और अपने सामूहिक प्रयत्नों से देश के शाश्वत मूल्यों और सांस्कृतिक धरोहर से अखिल विश्व को परिचित कराते रहेंगे।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भारतीय संस्कृति व राष्ट्रीय एकता का शंखनाद संपूर्ण विश्व में करते हुए अभिव्यक्त किया-

”मनुज जीवन है अनमोल, साधना है वह एक महान l
सभी निज संस्कृति के अनुकूल, एक हों रचें राष्ट्र उत्थान l
इसलिए नहीं कि करें सशक्त , निर्बलों को अपने में लीन l
इसलिए कि हो राष्ट्र हित हेतु समुन्नति पथ पर सब स्वाधीन l”

।।इति।।

मौलिक/ स्वरचित आलेख

-: आलेख लेखन:-

©डॉ. दीप्ति गौड़

(शिक्षाविद एवं साहित्यकार) (world record participant)

सर्वांगीण दक्षता हेतू राष्ट्रपति भवन नई दिल्ली की ओर से भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति महामहिम स्व. डॉ. शंकर दयाल शर्मा स्मृति स्वर्ण पदक,विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न शिक्षक के रूप में राज्यपाल अवार्ड 2018 से सम्मानित.

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