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थी लाखों कमिया हममे भी, हसता हमपर जमाना था,
उनपर क्या तब रुसवा होते, चाँद के पास जो जाना था ।
निकल पडे थे हम यूँही कुछ सपने पाले नैनो मे,
कुछ डेरे बांधे दिन मे, कुछ ईंटे सिंची रैनो मे ।
सारे जहान की क्षमताओ से ऊंचा अपना ठिकाना था,
शिवशक्ती के दर पर पहला परचम जो फहराना था ।
जरुरतो के मोलभाव पर, ताने हमने सुने कई,
बिखरे सपनो के तरकश से, टुकड़े हमने चुने कई ।
आँसुओ के झोली मे बंद कुछ , गलतीयो का खजाना था,
गिरकर फिर उठ हुए खडे हम, चाँद के पास जो जाना था ।
अगर असफल उड़ान के भय से, पंख हमारे झुक जाते,
औरो को गिरता देख अगर, कदम हमारे रुक जाते ।
क्या होता उन ख्वाबो का, जिनपर गर्वित अफ़साना था ?
अंगारो के पथपर तपकर, चाँद के पास जो जाना था ।
आज जहान-ए-महफील मे फिर नाम हमारा गूँजा है,
चाँद के निखरे ऑंगन मे भी आज तिरंगा ऊंचा है ।
पुरी कहाँ किताब हुई , बस एक पन्ना लगाना था,
कदम कहाँ रुकने देते, अब चाँद के पार जो जाना था ।