एक बेसहारा बेबस ,
लड़की खड़ी थी |
दया की भीख की ,
ना वो व्याकुल थी |
एक मजदूर की ,
संतान वो खड़ी थी |
सपने उसके भी ऊँचे थे ,
ऊँची इमारतों की नीव जो उसकी माँ रखा करती थी |
एक शिकायत थी ,
उसकी आंखो में |
जब भी वो बाप को ,
दारु पीते देखा करती थी |
एक प्रश्न था ,
उसकी धड़कन में |
जब भी वो माँ को ,
आधी रात में रोते देखा करती थी |
समझ ना आता था उसको ,
ये अंतर क्यूँ मौजूद हैं ?
चार कदम चलने के लिए ,
जब धरती एक जैसी कबूल हैं |
उसके छिद्र वस्त्र अछूत हैं ,
तो पार्टी में जाने वाले युवा के छिद्र वस्त्र फैशन क्यूँ हैं ?
झूठन कोई छोड़े तो ठीक हैं ,
पर उस झूठन की उसको क्यूँ मिलती भीख हैं |
अनपढ़ वो कहलाए क्यूँ ?
जब जीवन की समझ उसको सबसे ज्यादा हैं |
हर दिन वो खुद से लड़ती हैं ,
तब जाके उसकी सुबह रोशन होती हैं |
जो प्रेमी गुलदस्ता सड़क पर ,
फैंक के चले जाते हैं |
उस गुलदस्ते को उठाकर ,
प्रेम से तो वो ही सहलाती हैं |
आईने में देख ,
उन फूलों से खुद के लिए गजरा ब खूब बनाती हैं |
काया उसकी पत्थर हैं ,
आंखो से अंगार बरसते हैं|
अश्रु की उसकी जिंदगी में जगह नहीं ,
बस एक मुस्कान के लिए वो हर पल तरसती हैं |
नाले के पास बस्ती में जन्म लेकर भी ,
कमल जैसे वो खिलती हैं|
एक बार उसको पढाकर देखो ,
स्वर्णिम जैसा जहान रोशन वो कैसे करती हैं |